राकेश दुबे@प्रतिदिन। इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर टिप्पणी करने के लिए लोग उनके निजी जीवन तक चले जाते हैं| व्यापक दृष्टि से नहीं देखते| वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों से यह सच उजागर हुआ है कि शादी के बाद अलहदा हुई स्त्रियों, यानी विधवा और तलाकशुदा औरतों की संख्या विधुर और तलाकशुदा मर्दों की तुलना में लगभग दोगुनी है। ऐसे पुरुषों की संख्या एक करोड़ 60 लाख है तो महिलाओं की 3 करोड़ 20 लाख।
तलाकशुदा औरतों की राह तो और भी कठिन है। कुछ शिक्षित और सबल स्त्रियां समाज के रवैये से उकताकर भी दोबारा विवाह नहीं करना चाहतीं। बहरहाल, यह तथ्य समाज में स्त्री की स्थिति और प्रकारांतर से समाज की बुनियादी सोच की ओर इशारा करता है। स्त्री तो कदम-कदम पर असुरक्षित है। घर में, सड़क पर, खेत-खलिहान, स्कूल-कॉलेज, दफ्तर से लेकर सिनेमाघरों और दूसरी सार्वजनिक जगहों पर। कहीं उसे शारीरिक हमले झेलने पड़ते हैं, कहीं छींटाकशी और अश्लील इशारों से दो-चार होना पड़ता है। लालन-पालन और शिक्षा के स्तर पर भेदभाव से लेकर वैवाहिक जीवन में पति या ससुराल वालों के ताने या घरेलू हिंसा झेलनी पड़ती है, लेकिन इन सबको लेकर समाज में कोई खास चिंता नहीं है।
एक छोटे, पढ़े-लिखे, बौद्धिक तबके के लिए जेंडर एक इश्यू जरूर है। उसके बीच स्त्री की आजादी को लेकर चलने वाली बहसें अक्सर देह की मुक्ति तक जाती है। एक मुद्दे के रूप में इसके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इस तबके के भीतर स्त्री को आगे बढ़ने के अवसर भी मिले हैं। समस्या सिर्फ एक है कि इस खास किस्म के विमर्श का पूरे समाज से कोई सरोकार नहीं बनता। स्त्री के प्रति सोच बदलने की जरूरत सबसे ज्यादा मध्य से लेकर निम्न वर्ग तक है, जो इस देश का प्रचंड बहुमत निर्मित करता है। राजनीतिक दलों को लगता है कि वोट तो उन्हें पानी-बिजली, रोजी-रोजगार जैसे मुद्दों पर मिलते हैं, फिर स्त्री समानता का विषय छेड़कर अपनी मुश्किल क्यों बढ़ाई जाए?
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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