उपदेश अवस्थी@लावारिस शहर। विकास के नाम पर दनादन टैक्स बढ़ा रहीं सरकारों के लिए दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने एक अच्छा उदाहरण पेश किया है। हालांकि यह देश में पहला नहीं है परंतु वर्तमान परिस्थितियों में सराहना के योग्य है।
केजरीवाल सरकार ने तय किया है कि लोगों को सस्ती बिजली देने के लिए वो खुद बिजली का उत्पादन करेगी। इसके लिए वो कोयला ब्लॉक भी खरीदने वाली है। यदि आप सचमुच आमजन के हित की बात करते हैं तो किसी भी सरकार का इस तरह का कदम सदैव स्वागत योग्य होगा।
क्यों होगा स्वागत योग्य
वह इसलिए क्योंकि यदि सरकार अपना बिजली संयंत्र लगाएगी तो कुछ लोगों को रोजगार मिलेगा और अपनी बिजली का उत्पादन करने के कारण बिजली को लागत मूल्य तक घटाकर बेचा जा सकेगा। इसका सबसे बड़ा और सीधा लाभ उस राज्य के आम नागरिकों को मिलेगा क्योंकि ऐसा करने से सरकार आत्मनिर्भर होगी और वो सब्सिडी के लिए पेट्रोल या दूसरे उत्पादों पर टैक्स नहीं बढ़ाएगी। यदि टैक्स नहीं बढ़ाएगी तो मंहगाई भी कम होगी।
क्या कर रहीं हैं दूसरी सरकारें
चाहे शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रिय सरकार हो या मनमोहन सिंह की बदनाम व्यवस्था। दोनों ने टैक्स बढ़ाकर विकास के काम किए। उन्होंने मनरेगा के लिए तो इन्होंने दूसरी लोकप्रिय योजनाओं के लिए टैक्स बढ़ाकर पैसा जुटाया। जनता के इस पैसे से निर्धनों को सीधा लाभ पहुंचाने वाली योजनाएं बनाईं और वहां गांधी ने तो यहां चौहान ने व्यक्तिगत रूप से लोकप्रियता हासिल की। अब आप ही बताइए, भुगतान करें हम और आप, क्रेडिट मिले गांधी को। यह कैसा न्याय हुआ ? जब जब टैक्स का विरोध किया इन सरकारों ने टका सा जवाब दिया 'टैक्स नहीं लगाएंगे तो विकास कैसे होगा।'
यदि मामला गंभीर है तो आंदोलन क्यों नहीं बनता
टैक्स, देश में भ्रष्टाचार से भी बड़ा संकट है। पूरे देश में साल भर में इतना पैसा भ्रष्टाचार में बर्बाद नहीं होता जितना टैक्स में बर्बाद हो जाता है। सरकारों की षडयंत्रकारी नीतियां चुपके से प्रतिशत में टैक्स बढ़ा देतीं हैं और मंदिर मस्जिद के लिए तलवारें निकाल लाने वाले इन मामलों पर चुप रहते हैं। वो इसलिए क्योंकि टैक्स की गणनाएं इतनी जटिल बना दी गईं हैं कि आम आदमी इसे समझ ही नहीं पाता। केवल 2 प्रतिशत लोग इसे समझते हैं परंतु उनमें से ज्यादातर अपने कारोबार में व्यस्त हैं और जो एकाध शेष रह जाता है उसे ये सरकारें निगल जातीं हैं। लोगों के बीच सरल शब्दों में विषय जाता ही नहीं, तो आंदोलन कहां से आएगा।
तो फिर विकास के लिए पैसा कहां से आएगा
पं. जवाहरलाल नेहरू, इस नाम के साथ ही
एक विदेशी सूट वाला आदमी,
एक सिगरेट पीता हुआ मस्तमौला,
किसी विदेशी महिला की सिगरेट जलाता हुआ प्रधानमंत्री
कुछ इस तरह की तस्वीरें आपके जहन में उतर आतीं हैं। इस नाम के साथ कभी किसी के हृदय में वो 9 कारखाने नहीं आते जो इसी बदनाम प्रधानमंत्री ने सरकार की आय बढ़ाने के लिए लगाए थे, जो आज तक कभी घाटे में नहीं गए। सरकारें बदलीं लेकिन इन कारखानों की तरक्की पर कोई असर नहीं पड़ा। ये हर साल देश के लिए हजारों करोड़ रुपए कमाते हैं। विदेशी डॉलर कमाते हैं और लगातार नवरत्न बने हुए हैं। जरा सोचिए, यदि हर प्रधानमंत्री ऐसे ही 9 कारखाने लगाता, हर मुख्यमंत्री ऐसे 2 कारखाने लगाता तो 60 साल में देश में कितने कारखाने और कितना रोजगार होता। क्या भारत चीन से बड़ी आर्थिक शक्ति नहीं बन जाता ? लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि एक पार्टी देशवासियों की आर्थिक तरक्की नहीं चाहती थी और दूसरे देश को धार्मिक शक्ति बनाना चाहती है।
आज के युग में देशप्रेम के मायने
21वीं सदी में यदि आप किसी को देशभक्त पुकारना चाहते हैं तो कृपया यह पता जरूर कर लें कि उसने इस देश में रोजगार उत्पादन के लिए क्या किया ? उसने इस देश में टैक्स घटाने के लिए क्या किया ? भ्रष्टाचार एक बीमारी है परंतु भ्रष्टाचार के खात्मे से तरक्की नहीं होगी। मान लीजिए कालाधन आ भी जाए और हर नागरिक को 15 लाख रुपए मिल भी जाएं तो वो कितने दिन चलेंगे ? लेकिन यदि कारखाने लगे, सरकारें खुद व्यापार करने सामने आने लगीं और हर परिवार में 1 व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिल गई तो जरा सोचिए, वो अपने जीवन में कितना कमाएगा, और देश कितना आत्मनिर्भर हो जाएगा।
तो बताइए, देशभक्त कौन, वो जो गांधी का पोस्टर लगाकर भ्रष्टाचार का विरोध करते है, वो जो नेहरू को याद करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं, वो जो राममंदिर के लिए देशव्यापी आंदोलन खड़ा करते हैं परंतु रोजगार के लिए मीटिंग भी नहीं करते या फिर वो जो रोजगार की बात करे, देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात करे, टैक्स लगाकर विकास तो नुक्कड़ का नाई भी कर सकता है। योग्य प्रतिनिधि तो वो जो कमाई के साधन जुटाए और फिर विकास करे।
