शब्दजाल और देश

राकेश दुबे प्रतिदिन। देश के नेता अपनी- अपनी तर्ज़ पर भारतीय संविधान के दो शब्दों कि व्याख्या कर रहे हैं| अभी यह बहस नीचे तक नहीं आई है आने पर इसके रंग भुर कुछ बदरंग कर देंगे| वैसे इस सरकार के सत्ता में आने के साथ  बहसों का दौर लगातार जारी है। पिछले नौ महीनों में देश अनुच्छेद 370, धर्मांतरण, घर वापसी, और गांधी बनाम गोडसे जैसे न जाने कितने विवाद झेल चुका है। इन दिनों, संविधान की प्रस्तावना पर बहस जारी है।

इस विवाद की शुरूआत गणतंत्र दिवस पर प्रकाशित एक सरकारी विज्ञापन से हुई, जिसमें सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द नदारद थे। कांग्रेस ने इस पर आपत्ति जताई तो शिवसेना ने इसका समर्थन करते हुए इन शब्दों को हटाने की ही मांग कर डाली। रविशंकर प्रसाद का कहना है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में इन दोनों शब्दों को जोड़ने की जरूरत नहीं महसूस की थी। ये तो 1976 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 42वें संशोधन के तहत जोड़े गए। सरकार की दलील है कि जवाहर लाल नेहरू और बीआर अंबेडकर जैसे नेताओं को क्या धर्मनिरपेक्षता की समझ नहीं थी? जब उन्होंने ही इसे जोड़ने की जरूरत महसूस नहीं की तो फिर आज इन्हें क्यों ढोया जाए?

क्या ये शब्द किसी भी रूप में देश को, या इसके किसी हिस्से को कोई नुकसान पहुंचा रहे हैं? अगर नहीं तो फिर इन पर नाहक बहस क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हें हटाने की मांग करने वाले भारतीय संविधान को 1950 से भी पीछे ले जाना चाहते हैं, जब उनके वैचारिक पूर्वज भारत को भी एक धर्म आधारित देश बनाने में जुटे थे? ऐसा न भी तो क्या संविधान को लेकर एक व्यापक बहस कि शरुआत नहीं हो सकती| देश को शब्दजाल में मत फंसाइए, कुछ ठोस कीजिये|

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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