सस्ती बिजली के दावे और राजनीति

राकेश दुबे@प्रतिदिन। सस्ती बिजली का वादा सुनने में बड़ा अच्छा लगता है मगर इसकी वजह से अर्थव्यवस्था पर जो दबाव पैदा होते हैं, उसका खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ता है। लोग इस बारीकी को समझ नहीं पाते। अब जैसे दिल्ली की बात करें। यहां बिजली की दरें कम किए जाने पर बिजली वितरण कंपनियों को सालाना लगभग 15 सौ करोड़ रुपये की सब्सिडी देनी होगी। 

राज्य के विकास का बजट लगभग 14 हजार करोड़ रुपये का है। यानी बजट का लगभग 10 प्रतिशत बिजली सब्सिडी पर खर्च कर दिया जाएगा। इस राशि से सड़क, स्कूल-कॉलेज अस्पताल वगैरह बनाए जा सकते हैं। सस्ती बिजली के वादे तो किए जा रहे हैं पर बिजली उत्पादन पर किसी का ध्यान नहीं है। कई राज्य सोचते हैं कि बस उन्हें किसी तरह बिजली मिल जाए। वे यह देखने को तैयार नहीं हैं कि देश में बिजली की मात्रा सीमित है और उद्योग या कृषि कार्य वाले कई ऐसे क्षेत्र हैं, जिनकी मांग से मुंह नहीं फेरा जा सकता।

बिजली उत्पादन पर हर किसी को ध्यान देना होगा। जिन राज्यों में कोयला मिलता है वहां खदानों के नजदीक थर्मल पावर प्लांट बनाए जाने चाहिए। जहां पहले से ऐसे प्लांट हैं, मसलन दिल्ली में, वहां इनकी उत्पादकता में सुधार करना होगा। आज पावर सेक्टर कर्ज के जाल में फंसता जा रहा है। कारण यह है कि बिजली जिस नियंत्रित कीमत पर बेची जाती है और उसके उत्पादन की जो लागत बैठती है, उसके बीच आम तौर पर 20– 30 प्रतिशत का अंतर होता है। 

कई वितरण कंपनियां तो बिजली खरीद पाने की क्षमता ही खो बैठी हैं। अगर उन पर ज्यादा शर्तें थोपी गईं तो उनमें पूंजी लगाने वाले अपना धंधा बदलने पर मजबूर हो सकते हैं। ट्रांसमिशन और डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम बेहतर बनाने के लिए निवेश की जरूरत है। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में हुई तकनीकी प्रगति ने सोलर सेलों से बनने वाली बिजली की उत्पादन लागत थर्मल पावर के ही आसपास ला दी है। थोड़ी कोशिश करके हम अपना बिजली उत्पादन काफी बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब इस पर राजनीति बंद हो।

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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