ला-इलाज दर्द: नंगे बदन नमक रिफायनरी में काम कर रहे हैं झाबुआ के आदिवासी

उपदेश अवस्थी@लावारिस शहर। ये शिवराज सरकार, आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया और झाबुआ के तमाम विधायकों के मुंह पर करारा तमाचा है, परंतु यह मामला कभी मीडिया की सुर्खियां नहीं बनेगा, ना ही सरकार की चिंता का विषय क्योंकि इसमें कालीकमाई की गुंजाइश नहीं है और ना ही लोकप्रियता बटोरने का कोई सुनहरा अवसर।

यह दर्द भरी दास्तां हैं झाबुआ के उन सैंकड़ों आदिवासी मजदूरों की जो राजस्थान की नावां शहर स्थित नमक रिफायनरी में काम कर रहे हैं। शहरों की सड़कों के साइड में लगे होर्डिंग्स में खुशहाल दिखाई देने वाले मध्यप्रदेश की यह एक भयानक तस्वीर है। इन आदिवासियों तक कोई सरकारी सहायता नहीं पहुंची, इसलिए रोजगार की तलाश में मध्यप्रदेश से पलायन कर गए।

नावां शहर की नमक रिफायनरी में इन्हें दिहाड़ी मजदूरी पर रख लिया गया, लेकिन मजदूरों के स्वास्थ्य हितों की यहां कतई देखभाल नहीं होती। कड़कड़ाती सर्दी में ठंडे पानी के बीच नंगे बदन 12—12 घंटे लगातार काम करते हैं ये मजदूर। बच्चे भी नमक के ढेर पर ही खेलकर बढ़े हो रहे हैं। ना स्कूल ना अस्पताल। जब तक शरीर में सांस बाकी है, मजदूरी कर रहे हैं।

पिछले 3 साल से यह क्रम लगातार जारी है। अब तो ये आदिवासी इसी को अपना जीवन मान चुके हें। यहीं बच्चे जन्म लेते हैं और नमक में ही खेल कूद कर बड़े भी हो जाते हैं। बारिश के मौसम में नमक उद्योग ठप होने पर ये लोग अपन गांव लौट आते हैं। गांवों में स्थित छोटे खेतों में ये लोग बारिश की एक फसल करते है और दीपावली त्यौहार के बाद वापस लौट जाते हैं।

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के चारणपुर गांव निवासी एक परिवार ने बताया कि साब करीब तीन सालों से यहां काम कर रहे हैं। परिवार में मात्र एक चेनसिंह पांचवी कक्षा पास है बाकी बड़ा भाई दिलीप, छोटा भाई लोकेश, पत्नी जमुनादेवी, भाभी कालीदेवी व मां पार्वतीबाई सभी अनपढ़ है। कल्याणपुरा गांव के मैसु ने बताया कि वह परिवार सहित यहं रहता है। बच्चों की पढ़ने लिखने की उम्र है, लेकिन नमक में ही अपनी जिंदगी झोंक रहे हैं।

राजस्थान की मीडिया टीम इन भील परिवारों के जीवन को टटोलने नमक उत्पादन इकाइयों पर पहुंची तो बातचीत में इन्होंने बताया कि पढ़ लिख कर क्या करेंगे साहब। नौकरी तो हमें मिलनी नहीं और काम धंधा से और छूट जाएंगे। पढ़ने लिखने में हम अपना समय क्यों जाया करें।

पूरा परिवार के साथ नमक की क्यारियों में ही काम करता है। जो मजदूरी मिलती है उससे हमारा गुजारा चल जाता है। कुछ बचता है तो त्यौहार व शादी का खर्चा हो जाता है, बस और क्या चाहिए। बच्चों को पढाने के नाम इनका कहना था साब कठ्ह पढावां म्हे तो अठ्ह काम करां।

नहीं मिलती सरकारी मदद
श्रमिकों ने बताया कि सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलती है। श्रमिक कल्याण की योजनाएं भी इन लोगों तक नहीं पहुंचती। मध्यप्रदेश के मूल निवासी होने के कारण यहां की किसी भी योजना का इन्हें लाभ नहीं मिलता। लवण श्रमिक कार्ड नहीं होने के कारण उद्योग विभाग की ओर से गम बुट्स भी नहीं दिए जाते। जिसके चलते नंगे पांव ही खारड़ों में काम करना पड़ता है।

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