राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत का यह दुर्भाग्य है कि इन दिनों सारी बीमारियों का एक इलाज “विदेशी निवेश” माना जा रहा है| ऐसा लगने लगा है कि सरकार ने इसे ही तारक मन्त्र मान लिया है| भारत एक कृषि प्रधान देश है| देश का कोई कारोबार नहीं है|ऐसे में राष्ट्रप्रमुख मुनाफे या प्रतिफल के गुणा-भाग को ध्यान में रख कर फैसला करने के बजाय जनता के व्यापक हित में निर्णय लेना चाहिए।
2008 की आर्थिक मंदी ने इस कड़वे सबक का पाठ अमेरिका और यूरोप को पढना पढ़ा है। भारत के नीति निर्माता अब भी यह पाठ पढ़ने को तैयार नहीं हैं। ऐसा लगता है कि वे दरिया में खुद डूब कर उसकी गहराई की थाह लेना चाहते हैं। नई सरकार ने आर्थिक सुधारों को अच्छे दिनों का पर्याय बना डाला है। प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कर रहे हैं और एफडीआइ के आश्वासनों के ढेर के साथ स्वदेश वापसी करते हैं। अब एफडीआइ आने के आश्वासनों की बिना पर ही दावा किया जाने लगा है कि भारत विश्व पटल पर छा गया है। एफडीआइ राग की तह में जाने के लिए इस पर तफ्सील से गौर करते हैं।
सरकार का पूरा जोर देश में एफडीआइ लाने पर है। सरकार के आर्थिक सलाहकार नए-नए तरीके ईजाद कर रहे हैं, ताकि विदेशी पूंजी की राह आसान हो सके। क्या एफडीआइ आने से देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी? जवाब है, नहीं। हमारी अर्थव्यवस्था में आने वाली कुल एफडीआइ का जीडीपी में महज दो फीसद हिस्सा है। जबकि इसके विपरीत घरेलू निवेश का हमारी जीडीपी में अट्ठाईस फीसद योगदान है। अगर अर्थव्यवस्था में हो रहे विदेशी निवेश के प्रवाह में इजाफा हो जाए तब भी यह विकास की गारंटी नहीं है, क्योंकि हमारी कमजोरी देश के भीतर है।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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