राकेश दुबे@प्रतिदिन। सरकर को ठंड नहीं लगती, सरकार हमेशा गर्म और सुरक्षित होती है| सरकार तो उच्चतम न्यायालय के निर्देश को भी देखा अनदेखा कर देती है| यह गुस्सा बेवजह नहीं है कि कड़ाके की ठंड की मार झेलते हुए न सिर्फ बहुत सारे बेघर और गरीब लोग किसी तरह दो-ढाई महीने का वक्त काटते हैं, बल्कि हर साल सैकड़ों लोगों को जान गंवानी पड़ती है।
यह समझना मुश्किल है कि कई बार महत्त्वहीन कार्यक्रमों पर पैसा बहाने वाली सरकारों की प्राथमिकता में जाड़े की मार झेलते लोगों की तकलीफ क्यों शुमार नहीं हो पाती! इस साल ठंड बढ़ने के साथ ही अब तक देश के अलग-अलग इलाकों में एक दर्जन से अधिक लोगों के मरने की खबरें आ चुकी हैं, मगर इन्हें लेकर कोई राज्य सरकार गंभीर नहीं दिखी! गरीब और बेघर लोगों के लिए घर मुहैया कराना तो जैसे उनके सरोकार में ही नहीं रह गया है, पर रैन बसेरों और अलाव आदि का इंतजाम करना भी उन्हें जरूरी नहीं लगता| हकीकत यह है कि जैसे तैसे अस्थायी रैन बसेरे बनाए भी जाते हैं, वहां की बुनियादी सुविधाओं की हालत देख कर ज्यादातर जरूरतमंद उसमें शरण लेने से बचते हैं।
मौसम विभाग के मुताबिक अभी सर्दी और बढ़ेगी। जाहिर है, इसमें बेघर और गरीब तबके के लोगों की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। सभी जानते हैं कि मौसम की मार से जान गंवाने वाले अधिकतर गरीब लोग होते हैं, जिनके पास रहने-खाने का ठिकाना नहीं होता। लेकिन अर्थव्यवस्था के ऊंचे ग्राफ से विकास का पैमाना तय करती सरकारों ने शायद ही इसे कभी दर्ज करने की कोशिश की कि देश में बेघर या रहने के लिए बदहाल ठिकानों पर किसी तरह वक्त काटते लोगों की वास्तविक संख्या क्या है। ऐसे दृश्य आम हैं, जहां खुले आसमान के नीचे काम करने या रहने को मजबूर लोगों में बहुतों के पास ओढ़ने या खुद को ढकने को कंबल-रजाई तो दूर, तापने को सूखी लकड़ियां भी मयस्सर नहीं होतीं। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र और जनकल्याण के सिद्धांतों पर कायम होने का दावा करने वाली हमारी सरकारों की प्राथमिकता सूची में देश के गरीब और कमजोर तबके के लोग नहीं हैं।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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