राकेश दुबे@प्रतिदिन। कभी जनता दल नाम का एक जमावड़ा हुआ करता था| अपनी ढपली अपना राग के कारण बिखरा गया| अब फिर जुटना चाहता है और अब सवाल यह है कि संभावित दल के वजूद में आने से देश की राजनीति पर क्या असर या फर्क पड़ेगा?
निश्चय ही इस पहल की कई सीमाएं हैं। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, एचडी देवगौड़ा, शरद यादव कोई नया आकर्षण पैदा कर पाएंगे, इसमें संदेह है। विलय के बाद भी वे देश भर में अपनी मौजूदगी का दावा नहीं कर सकते। लोकसभा में उनकी कुल सदस्य-संख्या पंद्रह से ज्यादा नहीं होगी।
दूसरी तरफ कई बातें ऐसी हैं जो इस कवायद की अहमियत रेखांकित करती हैं। नई पार्टी राज्यसभा में तीसरी सबसे बड़ी ताकत होगी, जहां भाजपा को फिलहाल बहुमत हासिल नहीं है। फिर, नए दल का राष्ट्रीय आकार भले नहीं होगा, पर इसकी हैसियत एक राज्य तक सिमटे तमाम क्षेत्रीय दलों से अधिक होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, हरियाणा तो इसके प्रभाव क्षेत्र तो होंगे ही, यह दूसरे राज्यों में भी थोड़ा-बहुत पैर पसार सकता है। लिहाजा, ऐसे समय जब विपक्ष कमजोर दिख रहा हो, इन पांच दलों के विलय की संभावना मायने रखती है। भाजपा और विशेषकर मोदी की बढ़ी हुई ताकत ने इन्हें एकजुट होने को विवश किया हो। लेकिन अगर वे मोदी की चुनौती से पार पाने के लिए एक हो रहे हैं, तो इसमें हर्ज क्या है?
कमजोर विपक्ष लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। इसलिए तमाम कमियों के बावजूद नए दल की एक प्रासंगिकता हो सकती है। स्वाभाविक ही यह भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंता की बात होगी। पर शायद कांग्रेस को भी यह रास न आए, क्योंकि फिर विपक्ष की जगह घेरने के लिए उसे कड़ा मुकाबला होगा। भारत की राजनीति का स्वरूप जैसा होना चाहिए था वैसा नहीं बना सारे दल एक दूसरे की प्रतिलिपि बने| यह जमावड़ा भी अभी एक और प्रतिलिपि से हयादा कुछ नहीं दिखता|
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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