अति से बचें और खूब लिखें

राकेश दुबे@प्रतिदिन। प्रश्न यह है कि फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के मंचों पर कुछ टिप्पणियों के आधार पर जिस तरह सरकार अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है, उसका देश के लोकतांत्रिक ढांचे और बुनियादी उसूलों पर क्या असर पड़ेगा ?

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में एक तरह से स्थिति साफ कर दी कि सूचना तकनीक कानून की धारा 66-ए का सहारा लेकर किसी को भी चुप रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। हालांकि इस प्रावधान की वैधता को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने यह भी कहा कि बोलने की आजादी का मतलब किसी को अपमानित करना नहीं है; कानून किसी को चुप नहीं करा सकता, लेकिन वह किसी को अपमानित करने से रोक सकता है।

दरअसल, आइटी कानून की इस विवादित धारा में बोलने और अपमान करने की स्थितियों के बीच की अस्पष्टता ने ही शासन के हाथ खोल दिए हैं और वह एक सार्वजनिक बयान या टिप्पणी की अपनी सुविधा से व्याख्या करके किसी व्यक्ति को परेशान कर सकता है। सवाल है कि एक टिप्पणी के पीछे व्यक्ति की किसी खास मंशा का पता लगाने का क्या मानक होगा?

इस मसले पर केंद्र सरकार का पक्ष भले यह हो कि आइटी एक्ट की इस धारा के तहत की गई गिरफ्तारियां अफसरों के अधिकारों के दुरुपयोग की इक्का-दुक्का घटनाएं थीं, लेकिन अदालत ने सही कहा कि कानून के दुरुपयोग की अपवाद घटनाएं भी अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है।

गौरतलब है कि आइटी अधिनियम की धारा 66-ए के तहत किसी व्यक्ति को सोशल मीडिया के मंचों पर आपत्तिजनक संदेश प्रेषित करने पर तीन साल की कैद का प्रावधान है लेकिन इसमें मौजूद अस्पष्टता के चलते संविधान के तहत बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन होता है। अति से बचें और खूब लिखें |

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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