उपदेश अवस्थी@लावारिस शहर। मैं क्षमा चाहूंगा कि युवराज के लिए पप्पू शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं परंतु क्या करूं, ज्यादा लोग उन्हें पप्पू के नाम से ही जानते हैं सो जो सुलभ हो वही संबोधन करना चाहिए वाले सिद्धांत का पालन कर रहा हूं।
हां तो बात हो रही थी पप्पू की, जी नहीं— बात पॉलिटिक्स की हो रही थी। पॉलिटिक्स यानि राजनीति और इसकी असली तस्वीर देखनी है तो बाबू की खांग्रेस में देखिए। अभी कुछ दिनों पहले ही पप्पू की मॉं ने अपनी टीम के तमाम धुरंधरों को चार अलग अलग दिशाओं में विशेष अभियान पर भेजा था।
सब जानते हैं कि सारे के सारे पहलवान मुंहकाला करवा चुके हैं। शुरूआत में उन्होंने पुराने परंपरा अपनाई थी, एक दूसरे की टांग खींच रहे थे। ठीकरा फोड़ने के लिए सिर की तलाश कर रहे थे, लेकिन अचानक सारे के सारे पहलवानों ने जो कुछ दिनों पहले तक ना जाने किसके टिकिट के लिए आपस में ही तू तू मैं मैं कर रहे थे, एकजुट हो गए।
एक आईडिया जिसने बदल दी सारी दुनिया
अचानक एक चतुर सुजान के दिमाग में नया आइडिया आया। इससे पहले कि पप्पू की मॉं पहलवान और पहलवान के चरणसेवकों की छुट्टी करतीं, उन्होंने पप्पू का नाम उझाल दिया। देखते ही देखते कुछ दिनों पहले तक गुटों में बंटे पहलवान इस बात पर एकजुट हो गए और सब के सब पप्पू को बली का बकरा बनाने की मांग कर रहे हैं। अगला दंगल 6 महीने बाद है। पहलवानों की मांग है कि एकाध महीने में ही बली के बकरे की घोषणा कर दी जाए।
इसमें पॉलिटिक्स क्या है
कितनी आसानी ने पूरी की पूरी स्टोरी ही बदल गई। कोई दण्ड का विचार नहीं, कोई कार्रवाई नहीं। पूरी की पूरी टोलियां पप्पू के पीछे पड़ गई। नई बहस शुरू हो गई। नापतौल होने लगा। धीरे धीरे इस चिंगारी को और हवा दे दी जाएगी और फायदा यह होगा कि पस्त पड़े पहलवानों पर कार्रवाई का चाबुक नहीं चल पाएगा। सब के सब नए गुंताड़े में फंस जाएंगे। एक तीर से दूसरा शिकार यह कि अगले दंगल में पप्पू उनके कोटा सिस्टम में दखल भी नहीं दे पाएगा। बेचारे को गुजरात के शेर के सामने जो छोड़ दिया जाएगा।
तो यह है पॉलिटिक्स जो साधूसंतों की सेवा करने वालों को नहीं आती। आती होती तो चाचा चौधरी के वंशज को ना बचा लेते।
समझ गए ना ?