लोक सास्कृतिक पर्व संझा: आधुनिकता के दौर में जीवित है परंपरा

shailendra gupta
संजय पी लोढा/झाबुआ। भारतीय परिवेश मेें विभिन्न लोक संस्कृतिया आधुनिक दौर में विलुप्त हो रही है लेकिन कुछ ऐसी परंपराएं आज भी जिंदा है और खासकर ग्रामीण क्षैत्रों में उनका वर्चस्व आज भी खत्म नही हुआ है।

ऐसी ही एक परंपरा की पहचान है संझा, जो की श्राद्धपक्ष के दिन से ही दीवारों पर बनायी जाती है। कुंआरी कन्याओं का यह पर्व आज भी हमें अपने सास्कृतिक होने का आभास करवाता है-

क्या है संझा

श्राद्ध पक्ष की शुरूआत यानि पुर्णिमा से लेकर अमावस तक एक पखवाड़े में कुंआरी कन्याएं दीवार पर गोबर,फुलों और सितारों से संझादेवी का प्रतीकात्मक रूप बनाती है। पंरपरानुसार माना जाता है की संझा को पन्द्रह दिन तक नये नये कलेवर में सजाकर और उसके गीत गाकर कन्याएं अपनी भावनांए प्रकट करती है। अलग अलग मतानुसार इसे एक बेटी भी माना जाता है जो श्राद्ध मे अपने पीहर(मायक) आती है और कन्याएं सहेली मानकर इसे सजाती है तो इसे संजादेवी भी माना जाता है।

शाम के समय होता है गीत गुंजन- सांझ ढ़लने के साथ ही मोहल्लेभर में कुंआरी कन्याएं अपने कार्यो से निपटकर संझा को सजाने में जुट जाती है। संझा की आरती उतारने के साथ उसके पारंपरिक गीत गांए जाते है फिर अंत में प्रसाद बांटी जाती है।

बनायी जाती है विभिन्न आकृतियां

संजा पर्व पर बारह दिनों में विभिन्न आकृतियों से सजाकर संझा के भावविभोर गीत गाने के साथ तराजू, चैपड़,पांच कुंआरे, छाबड़ी, फूलो की टोकरी, स्वस्तिक, आठ सितारे, डोकरा-डोकरी, पंखा, व एकादशी के दिन किलाकोट बनाया जाता है। साथ ही इन्हे सजाने के लिए चांद-सूरज, बैलगाड़ी,हाथी-घोड़े, आदी से सजाया जाता है।

परंपराओं पर आधुनिकता का रंग लगने से संझा अब गली मोहल्लों के कुछेक वर्गाे तक सिमट कर रह गयी है और आजकल की युवा पीढ़ी अपनी संस्कृतियां का पोषण करने के बजाय टीवी इंटरनेट और फेसबुक पर ही अपने को ग्लोबल करने में जुटी है। मौजूद समय से थोड़ा पीछे जाया जाए तो एक- दो दशकों में कन्यांओं में तीज, त्यौहारो के प्रति पर दिखने वाला उत्साह काफी कम हो चला है जिससें कई सास्कृतिक तीज त्यौहार आज फीके ही नजर आने लगे है।

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