उत्तराखंड में मध्यप्रदेश के 1035 लापता, गुना का तो पूरा गांव ही गायब

भोपाल। गुना शहर के बाहर बने टोल नाके से एक पक्का सा रास्ता फतेहगढ की ओर जाता है, जिसपर करीब बीस किलोमीटर चलने के बाद बमोरी गांव से एक कच्चा सा रास्ता कटता है।

पगडंडियों से थोड़ा आगे जाने पर ही गांव आता है मानपुर. जिसे आसपास के लोग टीकरी मानपुर के नाम से भी जानते हैं. मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा से सटा ये गांव आम छोटे से गांवों जैसा ही सोता हुआ सा है मगर सोते और रोते हुए इस गांव से सिसकियों की आवाज़ गांव में घुसते ही महसूस की जा सकती है.

गांव की गली पर बड़े से मकान की देहरी पर बैठकर सोबरन सिंह सिसक रहे हैं. उनके बड़े भैया घनश्याम सिंह और उनकी पत्नी ग्यारसी बाई चार धाम की यात्रा से पंद्रह दिन बाद भी वापस नहीं लौटे हैं.

अपने भैया भाभी को सोबरन सिंह ने इसी गांव की चैपाल से फूल माला पहनाकर विदा किया था. मुरैना से आई बस में बैठकर उसके भैया भाभी गांव के 47 लोगों के साथ चार धाम की यात्रा पर छह जून को रवाना हुए थे. जब सोबरन सिंह फफक कर रोने लगा तो उसके पिता समान भैया ने कहा था पगले रोता क्यों है कौन मैं अकेला जा रहा हूं पूरा गांव तो है साथ में. यही सोच कर तो उसने अपने भैया भाभी को जाने दिया था कि पूरा गांव तो है सुख दुख में एक दूसरे के काम आएंगे मगर पूरा गांव ही गंगा मैया की सहायक नदियों की पूर में बह जाएगा ये उसने सपने में भी नहीं सोचा था.

मध्यप्रदेश के इस गांव से उत्तराखंड का केदारनाथ करीब डेढ हजार किलोमीटर दूर है. मगर वहां आई आपदा ने धाकड़ों के इस हंसते खेलते गांव को तहत नहस कर दिया. गांव का कोई घर ऐसा नहीं है जहां इस आपदा ने डेरा नही डाला है. करीब पचास घरों वाले वाले इस गांव के हर घर में मातम पसरा है. किसी का भाई नहीं लौटा तो किसी की भाभी का पता नहीं है. गांव के जो 33 लोग नहीं लौटे उनमें से 16 पति पत्नी के जोडे है. 35 से लेकर 55 साल ये लोग अपने बच्चों को रिश्तेदारों के पास छोड़ गए थे.

गांव के करीब 32 बच्चे अब अपने मां बाप की बाट जोह रहे है. इन्हीं में है राजेन्द्र, जो राजस्थान के स्कूल में दसवीं पढ रहा है. मगर आपदा की खबर सुनकर भागा भागा गांव आ गया है और गांव आने वाले हर व्यक्ति से यही पूछता है मेरी अम्मा और बाबू कब आएंगे.

गांव की चैपाल पर पहुंचते ही हर शख्स अपने घर के गुमशुदा की फोटो लेकर आ गया. देखते ही देखते ढ़ेर सारे फोटो हो गए. ऐसी ही दो फोटो लेकर खड़े थे दादा कालूराम सत्तर साल की उम्र, दुबला पतला कमजोर सा शरीर और उसपर दो जवान बेटों के जाने का गम. कालूराम के दोनों बेटे श्रीलाल और मुरारीलाल अपनी पत्नियों के साथ जिद्द करके केदारनाथ धाम की यात्रा पर चए गए. पिता  भरोसे छोड़ गए तीन बच्चे. अब घर में कोई खाना बनाने वाला नहीं है. तीनों लोग खाने के लिए भी रिश्तेदारों के मोहताज हो गए है.

सबसे बुरा तो हुआ है रामकिशन धाकड़ के घर जिसके पांच बड़े भाई अपनी पत्नियों के साथ इस अभागी यात्रा में गए थे. गांव के बीचों बीच बड़ा घर है उनका, पच्चीस लोगों के इस भरे पूरे घर में हमेशा रौनक रहती थी मगर अब इस घर से रोने पीटने की आवाज ही आती है.

रामकिशन की मां रमाबाई पर तो जैसे पहाड़ सा टूट पड़ा है. पांच बेटों और बहुओं के जाने का दुख. रोते रोते पछाड़ खाकर गिर जाती है. मगर जैसे ही बताया जाता है टीवी के पत्रकार आए हैं तो तुरंत आंसू पोंछ कर उठ जाती हैं अपने बेटों की फोटो दिखाकर विनती करती हैं अपने टीवी में इनको दिखाओ मगर मेरे हीरा बेटों  को कहीं से लाओ.

कुंटुब के सात भाइयों में सबसे छोटे रामकिशन अपने भाई भाभियों को तलाशने देहरादून ओर ऋषिकेश भी गए थे मगर सात दिन तक घूमने भटकने के बाद पुलिस में गुमशुदगी की एफआईआर कराकर लौट आए हैं.

लौट तो गांव के वो 14 लोग भी आए हैं जो इस काफिले में गए थे. पूरन लाल आंखों में आंसू भर कर बताते हैं कि रामबाड़ा तक हम सब साथ थे. बारिश होने लगी तो बाकी लोग किसी दुकान पर चाय पीने रूक गए. हम कुछ लोग बढ़ने लगे तय हुआ था ऊपर ही मिलेंगे. केदारनाथ जाकर हम 16 जून की रात रुके, दर्शन किए बाद में धर्मशाला आ गए. ये सारे लोग नहीं आ पाए. 17 की सुबह तड़के बारिश होने लगी. ये बारिश आठ साढ़े आठ बजे तक कयामत में बदल गई. तेज पानी आया हम धर्मशाला की छत पर लोहे की रड़ पकड़ कर खडे हो गए. देखा पानी का सैलाब चला आ रहा है जिसमें दुकाने गाडियां और मकान बहते चले आ रहे थे.

करीब आधे घंटे तक तो भगवान का तांडव सा ही हुआ. लगा था कि अब नहीं बचेंगे. पूरन के साथ गए गांव के भगवान लाल की ये आवाज थी. केदारनाथ के मंदिर के ऊपर से पानी का रैला बहा चला आ रहा था. उसमें सब कुछ बह रहा था. जब ये बारिश रूकी तो देखा केदारनाथ मंदिर के आस पास का सब कुछ बह गया था. क्या दुकान क्या होटल और क्या धर्मशाला हर तरफ तबाही का मंजर था. हमें लगा हम तो सैलाब से बच गए मगर नीचे के हमारे लोग सुरक्षित होंगे. तीन दिन लगातार चलने के बाद हम किसी तरह ऋषिकेश पहुंचे. वहां पर भी छह दिन डेरा डालकर अपनों का इंतजार किया मगर जब थक हार गए तो अब लौट आए हैं. अपनी जिंदगी में अपनों का इंतजार लेकर. भगवान दास की आंखों से आंसू झरने लगे थे.

मुझे लगा जिंदगी भी अजीब है. जिन्होंने केदारनाथ में बाढ़ और सैलाब की तबाही झेली वो जिंदा हैं मगर जो केदारनाथ पहुंच नहीं सके उनके नाम लापता लोगों की सूची में आ गए. क्या यहीं है किस्मत.

गांव की छत पर प्रियंका भी बैठी हुई थी तीन साल पहले ही इस गांव से विदा हुई थी मगर आपदा में मां बाप चाचा चाची के नहीं लौटने की खबर सुन एक हफ्ते से अपने ससुराल में सबको छोड़ मायके आकर बैठी है ना खाती है ना पीती है सिर्फ गांव के रास्ते पर नजर टिकाए रहती है.

पत्रकारों के गांव आने की ख़बर सुन सरपंच फूलचंद भी आ जाते हैं बेबाकी से कहते हैं ऐसा दुख जिंदगी में पहली बार देख रहे है. गांव तो उजड़ गया अब. क्या करें करने को कुछ रह नहीं गया. गांव में बच रहे गए बड़ों को भी छोटे बच्चों जैसी झूठी दिलासा देकर बहलाए हुए हैं. गांव में कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला था. अब धीरे धीरे गाड़ी पटरी पर ला रहे हैं.

गांव छोड़ते वक्त मन में यही विचार आ रहा था कि हजारों किलोमीटर दूर हुआ हादसा कितना बड़ा दर्द गांव के हर परिवार को दे गया. लापता लोगों का इंतजार करते परिवार के लोग कभी मान पाएंगे कि उनके परिजन अब इस दुनिया में नहीं रहे. सोचिए कितनी बड़ी उलझन है... वे मन ही मन में मान रहे हैं कि उनके लोग अब नहीं हैं मगर ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे.

कितना मुश्किल होगा सच्चाई को जब्त करना. और जब सच्चाई सामने आएगी तब क्या होगा. उसके बाद जब मुआवजे का पैसा बंटेगा तब कितने परिवार टूटेगे. और क्या कभी इस गांव के लोगों के अपनों का इंतजार खत्म होगा. छोटा बालक राजेन्द्र उम्मीद से भरकर बोलता है ऐसे हादसों में कई साल बाद लोग लौट कर आते हैं मेरे मां बाप भी आएगें. आप देखना.
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