सतीष शुक्ला@खुलाखत। सहनशीलता की भी सीमा होती है म0प्र0 में पिछले 17 वर्षों से एक एक क्षण अपमान, असमानता,असुरक्षित और आशंकाओं से भरे जीवन को जीते जीते म0प्र0 का अध्यापक संवर्ग हताश और निराश है। संविधान की रक्षा के नाम पर बने न्यायालय, विधानसभा आदि उच्च संस्थाएँ भी इनके हितों की रक्षा नहीं कर पाया हैं। मैं इस पत्र के माध्यम से पूछना चाहता हूँ कि
1.क्या नया अधिनियम बनाकर वर्ग विशेष का आर्थिक शोषण किया जा सकता है? यदि हाँ तो इसे न्याय ,पुलिस, मंत्री आदि सभी क्षेत्रों में लागू किया जाना देश हित में होगा जैसे संविदा न्यायधीश, संविदा मुख्यमंत्री, आदि और 3 वर्षों बाद उन्हें संविलयन किया जाना चाहिये।
2. यदि यह व्यवस्था सभी क्षेत्रों में सम्भव नहीं तो इन सभी क्षेत्रों को विद्वान और धुरंधर देने वाले उन्हें न्याय/अन्याय का पाठ पढ़ाने वाले शिक्षकों के साथ ही ऐसा क्यों?
इनका यथार्थ उत्तर यह है कि इस देश के नेता ,उद्योगपति, उच्चपदों में बैठे अधिकारी नहीं चाहते कि गरीब व पिछड़े वर्ग के लोग उनकी बराबरी में आएं किन्तु उनके विकास का ढोंग अवश्य किया जाए इसीलिये शिक्षा पद्यति और उसकी रीढ़ शिक्षक को कुंठित बनाकर वे इस मंसूबे को पूरा कर रहे हैं। क्यों कि गरीब व पिछड़े वर्ग के उत्थान होने पर उन्हें मजदूर, वर्कर कहाँ से मिलेंगे?
किन्तु यह नीति इस देशद्रोह से कम नहीं क्योंकि किसी भी देश की प्रगति उसकी शिक्षा पर 100 प्रतिशत निर्भर करती है।
यदि ऐसा नही तोः- क्यों बड़ी संवैधानिक संस्थाओं को स्वयं से संज्ञान लेकर आँख दिखाने वाले शीष्र न्यायालय इस मामले में याचिका लगाने पर भी इस सम्बंध में म0प्र0 के मुख्यमंत्री से और समस्त नेताओं से कठोर सत्य कहना चाहता हूँ कि विकास के बड़े बड़े डींग मारने वाले ये महानुभाव को यह बात समझ लेना चाहिये कि -
जिस प्रदेश में शिक्षकों को चपरासी से, श्रमिक से कम वेतन मिलता है उसके मुखिया को-
‘आँख और सिर उठाकर चलने का अधिकार नहीं‘
SATEESH SHUKLA
9425438441
MANDLA
