राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल छत्तीसगढ़ में जो घटा वह पूरी तरह से निंदनीय है। यह वारदात अब तक की सबसे बड़ी वारदात है। इस वारदात की पृष्ठभूमि में बहुत सारे सवाल हैं।
मध्यप्रदेश पुलिस के एक सेवानिवृत महानिदेशक हैं, जो इस समस्या की खोजबीन के लिए काफी समय जंगलों में रहे और वहां से लौटने के बाद इसे पूरी तरह से सामाजिक और आर्थिक समस्या की संज्ञा दी थी । आज माओवाद के झंडे के तले यही बात सामने आ रही है। सवाल यह है कि हम आज तक वह बात क्यों नहीं समझ सकें, जिसे माओवादी समझ गये और नक्सलवाड़ी से शुरू एक आन्दोलन युद्ध में बदल दिया । आदिवासी सिर्फ जंगल की अपनी संस्कृति की सुरक्षा की बात ही तो करते हैं।
विकास की जिस बात को आज जोर से कहा जाता है, उसके पीछे की उजागर होती कहानी भी सब जानते हैं । सच यह है की जिन लोगों ने सही में इस समस्या का अध्ययन कर कुछ लिखा पढ़ा ,उनसे राजनीतिक लोगों ने परहेज बरता। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की । डॉ विनायक सेन का मामला ही लें, हम न तो न्यायपालिका के आदेश के साथ जा सके और न जनभावना के साथ। केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ सरकार को श्रेय न मिले ,इसमें लगी रही। सलवा जडुम के जनक कल शहीद हो गये । इसे लेकर कितनी पेशबंदी नहीं हुई।
आज़ादी के समय बस्तर की जो समस्याएं थी, आज भी वैसी है । अगर एक पहलू यह है, तो हिंसा उसका समाधान कहीं से भी नहीं है, आज जैसे राजनीतिक कारणों से बस्तर की यात्रा हो रही है, यदि पहली हिंसक वारदात के समय होती तो शायद वहां माओवाद नहीं होता।
