राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश में आम चुनाव कभी भी हो सकते हैं। रस्म अदायगी के नाम पर दोनों प्रमुख दल अपनी विरोधी सरकारों के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे है। दोनों का ही नारा "देश बचाओ" इस बहाने से कभी ये तो कभी वे सत्ता में आते रहे और ये सरकार उन पर और वे इस सरकार पर देश को नष्ट करने के आरोप लगाते रहे। दोनों ही एक दूसरे के शासन में भारी भ्रष्टाचार की बात कहकर मतदाता को भरमाते रहे। जब सत्ता मिली तो कीर्तिमान देश के विकास के नहीं विनाश के बने।
एनडीए रहा हो, या यूपीए सरकारों की सारी ताकत अपने गठबन्धनो को सम्भालने में खर्च हुई। संसद में सांसदों की खरीद फरोख्त जैसे प्रहसन हुए। आकाश पाताल और जमीन पर भारी घोटाले हुए। संसद अब सिर्फ रस्म अदायगी के लिए आहूत की जाती है। संसद से लेकर पंचायत तक प्रतिपक्ष की भूमिका एन-केन-प्रकारेण सदन न चलने देने और श्रेय में भागीदारी तक रह गई है। देश की चिंता किसी को नहीं है यदि होती तो सीमा पार होती घुसपैठ, युद्ध विराम का उल्लंघन रोका जाता, वह नहीं कर सके तो कमसेकम देश के भीतर के भ्रष्टाचार को ही रोका होता।
अपने रिपोर्ट कार्ड पर खुद ही शाबासी लिखनेवालों से क्या उम्मीद की जा सकती है जो केंद्र में है वह वहां उदासीन जो राज्य की कुर्सी पर है वो वहां महाउदासीन। अपने भत्ते वेतन के लिए एक, पर गरीबों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अन्न का दाना देने को तैयार नहीं। भला हो चुनावों की रणभेरी का इसके बहाने गरीबों सस्ता अनाज देने की सुध उन राज्यों को आई, जो अब तक सिर्फ अपने खास लोगों की ही चिंता करते थे।
क्या यह सम्भव नहीं है की सांसद,विधायक,या अन्य किसी चुनाव में सिर्फ एक बार ही उतरने का मौका मिले । क्या यह सम्भव नहीं है कि चुनाव में धनबल और बाहुबल का प्रयोग न हो । क्या चुनाव लड़ने की पहली शर्त अपराधी न होना हो । यह सब सम्भव है पर तब जब निर्वाचित संस्थाओं में सज्जनशक्ति का बहुमत हो । जो अभी किसी राजनीतिक दल में दिखाई नहीं देता है ।
"इन्हें हटाओ -देश बचाओ "
