युवा कवि अतुल जैन सुराना ने मौजूद भारत-चीन विवाद पर सरकार को ललकारने का प्रयास किया है। निश्चित रूप से उनकी पंक्तियां प्रासंगिक हैं एवं दोहराए जाने के योग्य भी, ताकि अपनी बुजदिल भारत सरकार के मर चुके आत्मसम्मान को जगाया जा सके। इसी भाव के साथ हम इसे प्रकाशित कर रहे हैं।
क्या भारत माँ की छाती पर चीनी झंडा लहराओगे.
वो घर मे घुसकर बैठे हैं क्या दिल्ली तक बुलवाओगे.
कद भी जिनका छोटा है अपने जवान की छाती से.
बैठे हैं यहाँ तंबू गाड़े वो बिन बुलाये बाराती से.
उनके शिकारी कुत्ते भी अपनी सीमा पर भोंक रहे.
भारत भूमि को भारत का वो अब कहने से रोक रहे.
हिन्दी चीनी भाई-भाई वो कहकर बस छलते रहे.
मगर तरक्की से अपनी वो मन ही मन जलते रहे.
वो उनका घटिया माल हमारे बाज़ारों मे खपा दिया.
हुई थी संधि मगर क्यों बार बार यूँ दगा दिया.
उन छलियो की नीति से कब तक धोखा खाओगे.
वो घर मे घुसकर बैठे हैं क्या दिल्ली तक बुलवाओगे.
नापाक पाक की हरकत पे जो आग उगला करते थे.
जिनकी ज़ुबाँ से शब्दो के वो शोले निकला करते थे.
डर से शक्तिशाली के वो सारे धाकड़ बैठ गये.
आग उगलने वाले मुँह मे दही जमाकर बैठ गये.
कोयला दलाली से उपजा जब रगो मे पानी बहता है.
तब देसी घी की ताक़त को चाऊमिन चुनौती देता है.
उठो यदि तुम मे भारत की सच्ची आत्मा बसती है.
हां अस्मिता है अपनी भूमि नहीं वो इतनी सस्ती है.
अहिंसक और नपुंसक में अंतर कब समझोगे समझाओगे.
वो घर मे घुसकर बैठे हैं क्या दिल्ली तक बुलवाओगे.
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