राकेश दुबे@प्रतिदिन। सिर्फ कैंसर के ही,नहीं अन्य रोगियों को भी भारत के उच्चतम न्यायालय का आभार मानना चाहिए कि कम से कम वह तो बीमारों की सुन रहा है| सरकार तो बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साथ महंगी दवाओं के खेल में शामिल है| पिछले एक साल में उन भारतीय कम्पनियों ने जिनके मुख्यालय विदेश में है कीमतों में भारी वृद्धि की है|
उच्चतम न्यायालय ने आज एक महत्वपूर्ण फैसले में स्विट्जरलैंड की औषधि निर्माता कंपनी नोवार्टिस को करारा झटका देते हुए कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा 'ग्लिवेक' के पेटेंट की अनुमति संबंधी याचिका खारिज कर दी। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की खंडपीठ ने इस मामले में भारतीय पेटेंट नियामक (पेटेंट) डिजाइन एवं ट्रेडमार्क महानियंत्रक सीजीपीडीटीएम के 2006 के आदेश को बरकरार रखते हुए स्विस कंपनी की विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी।
न्यायालय ने पेटेंट नियामक के उस आदेश को सही ठहराया जिसमें उसने कहा था कि कैंसर के इलाज में प्रयुक्त होने वाली दवा 'ग्लिवेक' पुरानी दवा का ही संशोधित रूप है, इसलिए इसे भारत में पेटेंट की अनुमति नहीं दी जा सकती। स्विस कंपनी की दलील थी कि ग्लिवेक को प्रभावी दवा बनाने के लिए कई वर्षों तक अनुसंधान किये गए हैं इसलिए उसका पेटेंट कराना उसका अधिकार है। हालांकि खंडपीठ ने उसकी दलील नहीं मानी।
नोवार्टिस ने भारतीय पेटेंट कानून के उस उपबंध को चुनौती दी थी जिसके तहत मौजूदा मॉलेक्यूल्स के नये प्रारुप को पेटेंट कानून के तहत संरक्षा देने पर प्रतिबंध लगाया गया है। कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली ग्लिवेक पर एक रोगी पर प्रति माह एक लाख 20 हजार रुपये की लागत आती है जबकि इसकी जेनेरिक दवा पर केवल आठ हजार रुपये का खर्च आता है।
कैंसर के अलावा मधुमेह और ह्रदय रोग के साथ-साथ कई जीवन उपयोगी दवाये महंगी की गई है |इस ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है | हर मर्ज़ की दवा उच्चतम न्यायलय से लेना सरकार का निकम्मापन है| मजबूरी में हमे वहां जाना ही होगा|
- लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं। उनसे 9425022703 पर संपर्क किया जा सकता है।