
संस्था अपना काम बखूबी अंजाम दे रही है, पर 2012 के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि इसका काम सिर्फ जाँच करना है| सरकार की मर्जी है कुछ करे या न करे|
इस संस्था को सम्मान के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नही है| लेखों की जाँच का अधिकार तो दिया गया है, पर कार्यवाही के सारे अधिकार उसी कार्यपालिका के पास है| जिसे देश में सारी योजनायें बनाने और क्रियान्वित करने, भुगतान करने और बाद में लेखा जाँच के लिए भेजने का अधिकार है| यह संस्था स्वयं कोई कार्रवाई नही कर सकती है|
सरकारें सब करती है| जल थल नभ और जमीन के नीचे और आसमान के उपर जहाँ मौका मिले घोटाला कर देती है| 2012 तो “घोटाला वर्ष” इसी संस्था के बदौलत ख्यात हुआ है| आज दिल्ली में केंद्र सरकार ने रिपोर्टों को पुराना कहा है और जाँच की कहानी दोहरा दी है | मध्यप्रदेश विधानसभा में भी इस संस्था 160 से 163 तक के प्रतिवेदन सरकारी अक्षमता की कहानी कहते हैं| यहाँ भी जाँच होगी| अपनी बदशक्ली का दोष आईने पर| सवाल यह है की अगर अब कुछ सरकार को ही करना है| जैसे काम निकालना, काम कराना, उसमें कुछ-कुछ कराना फिर आडिट और कुछ मिल जाये तो जाँच| तो फिर भारत के नियंत्रक महालेखापरीक्षक जैसी नख दंत विहीन संस्था की जरूरत ही क्या है ?
- लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।