भोजशाला : सच कहने में भी कुछ तकलीफ है

प्रतिदिन@राकेश दुबे/ यूँ तो सच झूठ और सही गलत का फैसला करना न्यायालय का काम है, पर सही देखना, कहना और वक्त आने पर न मुकरने की उम्मीद शासकीय पदों पर बैठे लोगों से की जाती है, और अगर वे थोड़े लिखने पढ़ने का दम भरते हैं, तो उनसे सच कहने सुनने की उम्मीद हर कोई करता है| भोजशाला के मामले में आज जो कुछ हुआ, उसके बाद आए आधिकारिक बयान ने यह साबित कर  दिया है कि सरकार और उसके कारकून, गलतबयानी पर उतारू है| आंसू गैस,लाठीचार्ज और एक मौत! अगर यही शांति है तो बाकी क्या है?

भोजशाला के साथ गलतबयानी का सिलसिला आज से नहीं के दिनों से चल रहा है| उस समय संसद में सीना ठोंककर  यह कहनेवाले “अँधा भी टटोल कर कह देगा की यह मन्दिर है”] सांसद आज इस मामले में निर्णय के शीर्ष पर है| तब वे यह दम देते थे  कि वाग्देवी की प्रतिमा को वे लन्दन से वापिस लायेंगे| सत्ता में आने के पूर्व जो सत्ता का साधन होता है उससे दूरी बनाये रखना राजनीती का पेंच हो सकता है | सामान्य भाषा में इसे बात से फिरना कहते हैं| राजनीति की शुरुआत कभी अच्छी थी| अब बात से फिरना विशेष योग्यता है| 

अफसर की तर्ज पर कारकून न चले, तो कारकून कैसा | भोजशाला में यही हो रहा है| किसी ने कभी इस विषय को सुलझाने का प्रयास नहीं किया| प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर आन्दोलन खड़ा करना , फिर वोटों की खातिर सुविधा का संतुलन बिठाना खेल हो गया है| इन्हें इस ओर के वोटों की चिंता है और उन्हें भी मालूम है की वोट थोक में कैसे मिलते हैं| इस सब में मूल मुद्दा हल करने में किसी की रूचि नहीं है| कारकून तो हमेशा ठकुर सुहाती में लगे रहते हैं, उन्हें मुद्दे से क्या? हर बार जनता से एक ही आवाज़ आती है “हम शांति से रहना चाहते है”| पर आज जैसी नहीं |
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