राकेश दुबे/ प्रतिदिन/ अफजल गुरु को फांसी के बाद भारत की आलोचना पाक पोषित आतंकवादी गुट करेंगे,इसमें किसी को कोई शक नही था | लेकिन, अन्य उन देशों की चुप्पी भारत के लिए ठीक नहीं है जो दोस्ती का दम भरते थे | इस एक घटना ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि हम से कहाँ चूक हुई हैं |
इस समय पाकिस्तान सहित उन देशों को इस कार्यवाही का समर्थन करना चहिये था, जो भारत से दोस्ती का दम भरते हैं, वार्ताओंके स्तर चलाते हैं, कभी सीधे शरण मांगते हैं, कभी यूँ ही घुस जाते हैं |कुछ के लिए तो हमने अपने बाज़ार खोल रखे हैं, तो किसी के लिए दस्तरखान | फिर भी सीमा पर कभी ये तो कभी वो गोली चलाते हैं |
हम से गलती कहाँ हुई ? बड़ा सवाल है| एक नजर देखने पर हमे हमारी ताकत पडौसी देशों और विशेष कर उन देशों से कम नहीं दिखाई देती, जो हमें अस्थिर करने के लिए कभी अफजल को प्रशिक्षित करते हैं तो कभी कसाब को | फिर भी हम वैश्विक परिदृश्य पर कमजोर दिखते हैं | इसका कारण हमारी प्रारम्भिक विदेश नीति रही है| कहने को हम गुट निरपेक्ष थे | इसके बावजूद भी रूस के और तो कभी अमेरिका के पीछे चलने में अपनी नीति और स्वाभिमान को खो दिया |
कश्मीर का मसला, कोई मसला ही नहीं है जिसमे पाकिस्तानी वकालत की जरूरत हो| हर कहीं और हर कोई इस मुद्दे पर बात करने को तैयार और हम आतंकवादी गतिविधियों के बाद भी चुप | ऐसे ही अक्साई चीन का मसला हो या बंगला देश से घुसपैठ का | दक्षेस, आसियान हर मंच पर हमारी बात हम नहीं उठा पायें |हमारी मदद से आज़ाद हुए बंगला देश की बात तो छोडिये श्री लंका और नेपाल भी नजरें बदलते दिखते हैं, ऐसा क्यों?
क्यूँ की, हमने कभी समग्रता से विचार नहीं किया| अंग्रेजों के जाने के बाद दक्षिण पूर्व एशिया के उन देशों के साथ वैसे सम्बन्ध नहीं निभाए,जैसे अड़ोसी- पड़ोसी से निभाए| एक बार फिर सोचना होगा| क्यूंकि जिन्हें दोस्त समझते हैं, उनकी आस्तीन में खंजर है |