सिलेंडर का बवंडर

सुबोध आचार्य/ ''रोटी, कपड़ा और मकान'' कांग्रेस का यही निशान। ये नारा कभी, इंदिरा गांधी के समय लगातार कानों में गूंजता रहता था। इसी नारे ने इंदिराजी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था। और, बरसों तक इसी नारे ने आम आदमी को भरमाए रखा । इतने वर्षों बाद भी हम इसका अर्थ ढूंढ रह हैं लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाते, वर्तमान में भी कांग्रेस की सरकार है। आम आदमी की रोटी पर सरकार ने गिद्ध दृष्टि लगाकर उसका खाना-पीना हराम कर दिया है।

कांग्रेस के इंदिरा गांधी के जमाने में शकर, घासलेट भी कंट्रोल रेट पर मिलता था। तीज-त्यौहारों पर प्रति व्यक्ति कोटा बढ़ाकर वाहवाही लूटी जाती थी। शकर पर लेवी भी कांग्रेस की देन थी। वर्तमान में संसाधनों से भरपूर व्यवस्था पर जैसे ग्रहण लग गया। पेट्रोल के दाम, सब्जी—भाजी की तरह कम ज्यादा होने लगे। आम आदमी रोज अखबार पर नजर डालता है कि आज किसका दाम बढ़ाया सरकार ने? सरकारी गाड़ियों में लाखों लिटर की बर्बादी सरकार को नहीं दिखती। सरकारी अधिकारियों के यहां गैस का दुरुपयोग नहीं दिखता, लेकिन आम आदमी को कितने सिलेंडर दिए जाने चाहिए—ये सरकार तय कर रही है। 

वैसे भी वर्तमान में संयुक्त परिवारों की परंपरा लुप्त:प्राय है। अधिकतर नगरों/महानगरों में एकल परिवार प्रणाली है फिर भी सिलेंडर को करो ​सरेंडर का आदेश लागू कर दिया गया। रसोई गैस अब हर आम आदमी की मजबूरी बन गई है क्योंकि अब लकड़ी, कोयला, भूसा एवं अन्य संसाधन समाप्ति की कगार पर है। ऐसे में सिलेंडर भी छिनने की तैयारी सरकार ने कर ली है। चुनाव के पहले शायद वोटों की राजनीति को देखते हुए सरकार भी घोषणा कर सकती है कि एक दो सिलेंछरों की संख्या बढ़ा दी जाएगी। 

लेकिन वितरकों पर नकेल नहीं कस सकती, जो इसकी कालाबाजारी में लिप्त हैं। सबसिछी के आंकड़े दिखा—दिखा कर जनता को डराया जाता है, नुकसान की आंकड़ेवारी घुमा—फिराकर और घाटे का बजट पेश करके जनता को गुमराह करने में व्यस्त है। भारत वर्ष में ऐसे कई गांव एवं अंचल होंगे जिन्होंने गैस का नाम तक नहीं सुना होगा, लेकिन वहां भी अब इसकी गूंज सुनाई देने लगी है। आइल कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार नित नए कारण ढूंढ रही है। देशवासियों के लिए कब फायदे की बात होगी, ईश्वर जाने।

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