150 साल पहले अंग्रेज लाए थे हवस मिटाने, अब सेक्स बन गया रोजीरोटी

भोपाल। मध्यप्रदेश का एक जिला मंदसौर जिसे अफीम की अवैध खेती के लिए जाना जाता है। अब देह व्यापार के लिए भी चर्चा में आने लगा है। यह मुद्दा विधानसभा में भाजपा विधायक यशपाल सिंह सिसौदिया ने उठाया। उन्होंने बताया कि यहां 150 साल पहले आए बांछड़ समुदाय के लोगों की संख्या तेजी से बढ़ गई है और देहव्यापार उनकी रोजीरोटी का साधन है। 

हालात यह है कि यहां 250 से ज्यादा डेरों में देह व्यापार खुलेआम चलता है। उनके हिसाब से यह उनका कारोबार है एवं अवैध नहीं है। माता-पिता खुद अपनी बेटी के लिए ग्राहक तलाशते हैं और उसके साथ देह संबंध बनाने के लिए आग्रह करते हैं। 

दरअसल, यहां निवासरत बांछड़ा समुदाय जिस्म बेचकर पेट पालने में कोई संकोच नहीं करता। मां-बाप स्वयं अपनी बेटियो को इस धंधे में उतारते हैं। मंदसौर में करीब ४० गांवों में फैला बांछड़ समुदाय देह व्यापार में लिप्त है। बांछड़ा समुदाय के परिवार मुख्य रूप से मध्यप्रदेश के रतलाम, मंदसौर व नीमच जिले में रहते हैं। इन तीनों जिलों में कुल 68 गांवों में बांछड़ा समुदाय के डेरे बसे हुए हैं।

मंदसौर शहर क्षेत्र सीमा में भी इस समुदाय का डेरा है। तीनों जिले राजस्थान की सीमा से लगे हुए हैं। रतलाम जिले में रतलाम, जावरा, आलोट, सैलाना, पिपलौदा व बाजना तहसील हैं। मंदसौर जिले में मंदसौर, मल्हारगढ़, गरोठ, सीतामऊ, पलपुरा, सुवासरा तथा नीमच में नीचम, मनासा व जावद तहसील है। मंदसौर व नीमच जिला अफीम उत्पादन के लिए जहां दुनियाभर में प्रसिद्ध है, वही इस काले सोने की तस्करी के कारण बदनाम भी है। इन तीनों जिलों की पहचान संयुक्त रूप से बांछड़ा समुदाय के परंपरागत देह व्यापार के कारण भी होती है ।

रतलाम जिलें में बॉंछड़ा समुदाय के परिवार 11 गॉंव¨ में रहते हैं जिलें में इनके परिवार¨ की संख्या 327 है इस समुदाय के अधिक्तर डेरे जावरा तहसील में स्थित है। रतलाम में मंदसौर, नीमच की ओर जाने वाले महु-नीमच राष्ट्रीय मार्ग पर जावरा से करीब 7 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम-बगाखेड़ा से बांछड़ा समुदाय के डेरों की शुरूआत होती है। यहॅं से करीब 5 किलोमीटर दूर हाई-वे पर ही परवलिया डेरा स्थित है। इस डेरे में बांछड़ा समुदाय के 47 परिवार रहते हैं। महू-नीमच राष्ट्रीय राजमार्ग पर डेरों की यह स्थिति नीमच जिले के नयागांव तक है। रतलाम जिले के दूरस्थ गांव में भी इनके डेरे आबाद है। 

बाँछड़ा समुदाय के उद्गम, इतिहास व विकास का विवरण
मोचाखेड़ा निवासी बाँछड़ा समुदाय के वरिष्ठ सदस्य इंदरसिंह का ऐतिहासिक ढोलक के साथ जो कभी गुर्जर जाति के लोगों के समक्ष नाच-गाने के दौरान काम आती थी। इंदरसिंह अपने पिताजी के साथ उस दल में शामिल रहे जो गांव-गांव भ्रमण करता था। 

एक डेरा 
बाँछड़ा समुदाय का एक डेरा। समुदाय के अधिकतर लोग झोपड़ीनुमा कच्चे मकानों में रहते हैं। बाँछड़ा समुदाय की बस्ती को सामान्य बोलचाल की भाषा में डेरा कहते हैं। प्रताप सिसौदिया के सैनिकों का वंशज होने का दावा करते हैं। मेवाड़ की गद्दी से उतारे गए राजा राजस्थान के जंगलों में छिपकर अपने विभिन्न ठिकानों से मुगलों से लोहो लेते रहे थे। माना जाता है कि उनके कुछ सिपाही नरसिंहगढ़ में छिप गए और फिर वहाँ से मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले के काड़िया चले गए। जब सेना बिखर गई तो उन लोगों के पास रोजी-रोटी चलाने का कोई जरिया नहीं बचा, गुजारे के लिए पुरूष राजमार्ग पर डकेती डालने लगे तो महिलाओं ने वेश्वावृति को पेशा बना लिया, ऐसा कई पीढ़ियाॅं तक चलता रहा और अंततः यह परंपरा बन गई। 

इससे इस बात को बल मिलता है कि ये जातियाॅं कभी एक ही रही होंगी। इस बारे में बाँछड़ा समुदाय के इतिहास पर काम कर रही उज्जैन की महिला एवं बाल विकास अधिकारी संध्या व्यास का कहना है कि बाँछड़ा, बेड़िया, सांसी, कंजर जाति वृहद कंजर समूह के अन्तर्गत ही आती है। सालों पहले वे जातियाॅं वृहद कंजर समूह से पृथक हो गई। इसके पीछे भी विभिन्न कारण रहे होंगे । धीरे-धीरे इनकी सामाजिक मान्यताओं में भी बदलाव आ गया । इन जातियों में वेश्वावृत्ति की शुरूआत के पीछे इनकी अपराधिक पृष्ठभूमि ही महत्वपूर्ण कारण रही होगी । पुरूष वर्ग जेल में रहता था या पुलिस से बचने के लिए इधर-उधर भटकता रहा हो सकता है कि महिलाओं ने अपने को सुरक्षित रखने के लिए तथा अपनी आजीविका चलाने के लिए वेश्वावृत्ति को अपना लिया हो। दूसरे अन्य कारण भी रहे होंगे । धीरे-धीरे इन जातियों में वैश्यावृति ने संस्थागत रूप धारण कर लिया। प्राचीन भारत के इतिहास में इन जातियों का उल्लेख नहीं मिलता है । गुर्जर समाज के लोगों को भी पता है कि कंजर उनके पास भीख मांगने आते थे ।

वक्त की आँधी में पत्ता बनकर रह गई जिंदगी
नानी की जिंदगी में एक आॅंधी आई और वह डाल से टूआ हुआ पत्ता बनकर रह गई। वक्त के थपेड़ों ने उसे कहां से कहां पहुंचा दिया। इससे पहले कि माँ शब्द का मतलब समझ पाती, वहशियों ने उसे माँ का दूध छुड़ाकर बाँछड़ों को बेच दिया। मां संतोषबाई की हत्या कर दी गई । बाद में पुलिस ने उसे बरामद किया और उसे मंदसौर के निराश्रित बालगृह ‘अपना घर’ भेज दिया, जहां व अजनबी चेहरों को टुकुर-टुकुर देखा करती है । वह माँ-माँ कहकर रोती है । इधर-उधर देखती है । यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वह माँ के रूप में किसका चेहरा ढूंढती है । ‘अपना घर’ आने से पहले उसने कुछ दिनों तक एक ऐसी माँ का चेहरा लगातार देखा जिसने दूसरी माँ की कोख पर डाका डाला था। इस शोधार्थी ने जब ‘अपना घर’ में नानी से मुलाकात की तो लगा उसका मासूम चेहरा शायद इन्हीं शब्दों को बयां कर रहा है । 

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