VALENTINE DAY: महिला की आज़ादी और सम्मान के बिना अधूरा है प्रेम

राजेन्द्र बंधु। वैलेंटाइन को लोग सिर्फ प्रेम के दिवस के रूप में मनाते हैं और यही हमारे समाज की सबसे बड़ी दिक्कत है। आखिर प्रेम का का दिवस ही यदि सर्वश्रेष्ठ होता तो समाज में धोखा और हिंसा का कोई स्थान नहीं होता। दरअसल हम जो वैलेटाइन डे मना रहे हैं उसका वर्तमान स्वरूप बाजार की देन है और बाजार इससे भारी मुनाफा कमा रहा है। दरअसल वैलेंटाइन डे के इस स्वरूप में प्रेम को महिलाओं की आज़ादी और सम्मान से अलग करके एकाकी स्वरूप में देखा जा रहा है और इसकी जड़ों में पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था कायम है।

वास्तव में यदि इतिहास देखा जाए तो वैलेंटाइन डे प्रेम के साथ ही आजादी और मानव अधिकारों का दिन है। इनके बिना किसी भी प्रेम को 'प्रेम' की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है? 'आरिया आफ जैकोबस डी वॉराजिन' नामक किताब के अनुसार तीसरी शताब्दी में रोम के शासक क्लाडियस का मनना था कि विवाहित पुरूष अच्छे सैनिक साबित नहीं हो सकते है। उसकी यह भी मान्यता थीं कि प्रेम एवं विवाह से पुरूषों की बुद्धि और शक्ति दोनों खत्म हो जाती है। इसलिए उसने सैनिकों और अधिकारियों के विवाह पर पाबंदी लगा दी थी। क्लाडियस का यह आदेश इंसान की आज़ादी और मानव अधिकार के विरूद्ध था। क्लाडियस के इस आदेश की खिलाफत करते हुए संत वैलेंटाइन ने अधिकारियों  और सैनिकों के विवाह करवाए, जिससे 14 फरवरी 269 को वैलेंटाइन को फांसी पर चढ़ा दिया गया।

वैलेंटाइन डे की एक और कहानी 14 फरवरी सन् 1400 की है, जब पेरिस में धोखा और महिलाओं का खिलाफ हिंसा के मामलों पर सुनवाई करने के लिए 'प्रेम के उच्च न्यायालय' की स्थापना की गई थी। इस अदालत में न्यायाधीशों का चयन महिलाओं द्वारा किया जाता था। 

यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उक्त दोनों घटनाएं असल है या किवदंती, बल्कि यह महत्वपूर्ण यह है कि इन दोनों में प्रेम को इंसान की आजादी, सम्मान और उनके मानव अधिकारों से जोड़कर देखा गया है। इस दशा में आज वैलेंटाइन डे मनाने वालों से क्या यह नहीं पूछना चाहिए कि उनके मन में अपने साथी की आज़ादी के प्रति कितना सम्मान है। यह बात पुरूषों से पूछना इसलिए जरूरी है कि हमारी पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में पुरूष द्वारा किए जाने वाले प्रेम में स्त्रियों से उनके आजादी खत्मस करने की अपेक्षा की जाती है और कई बार उन्हें उनके अधिकारों से ही वंचित कर दिया जाता है।

विवाह चाहे युवक-युवतियों की अपनी पंसद से हो या परिवार द्वारा थोपा गया, दोनों ही परिस्थिति में पितृसत्ता इतनी हावी होती है कि वह स्त्री को दायरे से बाहर निकलने ही नहीं देती। इस व्यवस्था में विवाह का मतलब स्त्री द्वारा पति को परमेश्वर मानना और पति एवं परिवार के अनुसार ही अपने जीवन को ढालना होता है। यानी अपने अस्तित्व को खत्म करके ही स्त्री प्रेम और विवाह को कायम रख सकती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर दस महिलाओं में से छह महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। इनमें से ज्यादातर महिलाएं पति द्वारा की  गई हिंसा से पीड़ित है। भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार देश में 37 प्रतिशत महिलाओं पर घरों में हिंसा होती है। इसी सर्वेक्षण के अनुसार 51 प्रतिशत पुरूष महिलाओं की पिटाई को न्यायसंगत मानते हैं। ये उसकी समाज की सचाई है जो हर साल 14 फरवरी को प्रेम के दिवस के रूप में वैलेंटाइन डे मनाता आ रहा है। जबकि संत वैलेंटाइन ने ऐसे प्रेम के पक्ष में अपनी शहादत दी थीं, जिसमें इंसान की आज़ादी और सम्मान निहित है। किन्तु बाजारवाद ने वैलेटाइन डे के इस पक्ष को पूरी तरह नज़रअंदाज दिया है, जिसमें इंसान की, खासकर महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और मानवाधिकार निहित है।  

हमें यह मानना होगा कि पितृसत्ता से प्रेम करने वाले कभी स्त्री से प्रेम नहीं कर सकते। विवाह पर पाबंदी लगाने वाले रोम का शासक क्लाडियस भी पितृसत्तात्मक समाज का सबसे बड़ा प्रतीक है और उसने अपनी पितृसत्तात्मक विचारधारा के कारण ही मानवाधिकार विरोधी आदेश जारी किया था। इस दशा में आज जब लोग वैलेंटाइन डे मनाते हैं तो पितृसत्ता की खिलाफत और महिलाओं की आज़ादी और सम्मान को स्थापित किए बगैर वह अधूरा है।
राजेन्द्र बंधु 
निदेशक : समान सोसायटी
163, अलकापुरी, मुसाखेड़ी, इन्दौर, मध्यप्रदेश 

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