लोकायुक्त एजेंसी RTI के दायरे में, सरकारी अधिसूचना रद्द: हाईकोर्ट

लखनऊ। उत्तरप्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने 3 अगस्त, 2012 को एक अधिसूचना जारी कर लोकायुक्त एजेंसी को सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया था परंतु इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में उसकी अधिसूचना को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने कहा है कि लोकायुक्त एजेंसी सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के दायरे में आती है। न्यायालय ने अखिलेश यादव सरकार के इस कृत्य को अवैध एवं अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर जारी की गई अधिसूचना बताते हुए गुरुवार को इसे रद्द कर दिया और प्रदेश के कथित भ्रष्ट तंत्र पर जोरदार हमला किया। न्यायालय ने कहा कि समय आ गया है कि सरकार गलत तरीके से कमाई गई संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान बनाकर उसे सख्ती से लागू करे।

यह आदेश न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति वीरेंद्र कुमार द्वितीय की खंडपीठ ने सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर की ओर से दायर याचिका को मंजूर करते हुए पारित किया। याचिकाकर्ता ने 3 अगस्त, 2012 की उक्त अधिसूचना को चुनौती देते हुए कहा था कि राज्य सरकार का आदेश अवैध एवं मनमाना है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।

उनका कहना था कि आरटीआई अधिनियम की धारा 24 के तहत लोकायुक्त एजेंसी खुफिया या सुरक्षा संगठन की परिभाषा के दायरे में नहीं आती, लिहाजा सरकार उसे आरटीआई के दायरे से बाहर नहीं कर सकती है। उन्होंने कहा कि लोकायुक्त के समक्ष नौकरशाह एवं बड़े बड़े अधिकारियों के भ्रष्टाचार के मामले भी जांच के लिए आते हैं और जांच की प्रगति या अन्य कार्रवाई की सूचना अगर आम जनता को मिले तो हर्ज क्या है।

दूसरी ओर सरकारी वकीलों ने याचिका का पुरजोर विरोध करते हुए दलील दी कि सरकार की अधिसूचना उचित एवं कानून सम्मत है। अदालत ने सरकारी वकीलों की दलील नकारते हुए कहा कि अधिसूचना में लोकायुक्त एजेंसी को आरटीआई के दायरे से बाहर करने के पक्ष में कोई कारण नहीं दिया गया है जो समझ से परे है। अदालत ने कहा कि आरटीआई अधिनियम की धारा 24 के तहत लोकायुक्त एजेंसी को खुफिया या सुरक्षा संस्थान मानने से इनकार किया गया है ताकि उसे आरटीआई के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सके।

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि जब कोई प्रावधान जनता के हित के लिए बनाया गया हो तो उसे केवल इसलिए दरकिनार नहीं किया जा सकता कि ऐसा करने का सरकार को हक है। उक्त अधिसूचना केवल संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का हनन है। अदालत इस बात को संज्ञान में ले सकती है कि प्रदेश में बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार के मामले सामने आए हैं, लेकिन ऐसा विरले ही देखा गया है कि उसकी प्रभावकारी जांच हुई हो या मुकदमा चलाया गया हो।

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