बंटता मीडिया, घटता कद

डाॅ.शशि तिवारी। स्वतंत्रता सभी को प्यारी होती है कोई भी परतंत्र रहना नहीं चाहता! एक लम्बे समय तक गुलाम रहे भारत को जब आजादी मिली तब उसने अपने देश एवं नागरिकों के लिए संविधान का निर्माण किया। इसी संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रत्येक भारतीय नागरिक को वाक स्वतंत्रता प्रदान की गई लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता हमेशा दोहरी होती है। अर्थात् अपनी बात कहने की स्वतंत्रता तो दूसरी ओर कुछ न कहने का प्रतिबंध अर्थात ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता, बोला जा सकता जो देश की एकता अखण्डता को प्रभावित करता हो, लेकिन समय स्थिति परिस्थिति राजनीति के विकास के साथ इसमें भी विकृति सी आना प्रारंभ हो गई। 

संविधान में वर्णित तीन आधार स्तंभ विधायी पालिका, कार्य पालिका एवं न्यायपालिका ही मूल रही लेकिन प्रजातंत्र में चौथे स्तंभ के रूप में प्रेस ने अपने को स्थापित किया। निःसन्देह भारत की आजादी में भी अखबारों, पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आम आदमी की आवाज़ का माध्यम प्रेस है, अन्याय के खिलाफ की आवाज है। परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अन्याय करने वाला आदमी है या तीन आधार स्तम्भ। इस प्रकार तीनों स्तभों का प्रहरी चौथा स्तम्भ काफी सजग है। इसकी अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं है। कहीं ये भी निरंकुश न हो जाए, इसकी भविष्य की संभावनाओं के चलते 04 जुलाई 1966 को बकायदा एक प्रेस परिषद की स्थापना की गई एवं 16 नवम्बर 1966 से इसने अपना कार्य करना प्रारंभ किया इसलिए 16 नवम्बर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाना प्रारंभ हुआ। 

सामान्यतः इस संस्था का अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट का सेवानिवृत्त न्यायाधीश होता है। ये संस्था प्रेस की गतिविधियों पर नजर रखती है ये अलग बात है कि इसे कोई न्यायिक अधिकार अभी तक प्राप्त नहंी है। जैसे मेडिकल इंजीनियर कौंसिल को होते हैं। वैश्विक पटल पर देखें तो 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिवार कार्य कर रहे हैं। 2017 में जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रत इंडेक्स में भारत 136 वे पायदान पर एवं पाकिस्तान 139 पर है।

1982 में दूर संचार के विकास के साथ 1990 मे निजी क्षेत्र के चैनलों का भी आगमन हो गया इसके लिए प्रेस से इतर मीडिया शब्द को गढ़ा गया मीडिया ने भी एक स्वेच्छिक नियामक का गठन कर लिया है। सोचा तो ये भी गया था कि मीडिया के चलते अखबार प्रेस का अस्तित्व खतरे में आ जायेगा। लेकिन कहते हैं तप-तप कर ही सोना कुन्दन बनता है ऐसा ही निखार प्रेस में भी आया अपनी विश्वसनियता को बनाए रखा। दिक्कत तब शुरू हुई जब प्रेस और मीडिया औद्यौगिक घराने के मनमाने कार्य करने की इच्छा के साधन बन गए। राजनीतिक दलों में भी अपने-अपने समाचार पत्र पत्रिकाओं मीडिया संस्थान खोल लिए। इस तरह दोनों का गठजोड़ बढ़ता गया। 

चूंकि सरकारें आती जाती रहती है तो उनका काला कारनामा ढंका रहे यह एक बड़ी समस्या सभी के सामने आ खड़ी हुई। प्रेस मीडिया को नियंत्रण करने की दिशा में सर्वप्रथम प्रयास आपातकाल में 1975-77 के समय हुआ। बिहार में जगन्नाथ मिश्र. के समय भी ‘‘प्रेस नियंत्रण’’ संबंधित एक विधेयक लाने का प्रयास किया गया था जो सफल नहीं हुआ। इसी तरह बहुमत वाली राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार में 1988 में लोकसभा में प्रेस को ‘‘सरकारी नियंत्रण’’ में लाने के लिये अवमानना विधेयक लेकर आए जिसे पास भी करा लिया गया लेकिन बढ़ते तीव्र विरोध के चलते सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। 

ऐसा ही कुत्सित प्रयास राजस्थान सरकार द्वारा काला कानून बनाया गया लेकिन पत्रिका अखबार के प्रेस की स्वतंत्रता एवं पत्रकारिता के उच्च मापदण्डों को कायम कर सीधे सरकार से टक्कर के बिना नफा नुकसान के इसका नतीजा यह हुआ ये काला कानून राजस्थान सरकार विधान सभा में प्रस्तुत न करते हुए अपनी नाक कटने से बचाने के लिए इस दण्ड विधियां (राजस्थान संशोधन) विधेयक 2017 प्रवर समिति को सौंपना पड़ा। यहां कई यक्ष प्रश्न प्रेस जगत में उठ खड़े हुए मसलन अन्य अखबारों ने प्रेस की आजादी पर पड़ने वाले डाके को एक मिशन के रूप में क्यों नहीं लिया? आखिर किस बात का डर था? विज्ञापन या प्रेस की आड़ में चल रहे कारोबार पर एवं भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव का डर! कहते भी है व्यापारी कभी किसी से नहीं लड़ता, क्योंकि उसकी जीविका एवं व्यापार को अधिकाधिक बढ़ाना ही उसका मुख्य उद्देश्य होता है। 

रहा सवाल पत्रकारिता का तो धनबल वाले ही पत्रकारों को हांक रहे हैं। ऐसे में पत्रकारिता का यज्ञ कैसे चलेगा? वो समय और पत्रकार भी नहीं रहे या घर फूंक कर भी हर हाल में न्याय का साथ दे उच्च मानदण्ड स्थापित करते थे। फिर बात चाहे विद्यार्थी की हो, माखनलाल चतुर्वेदी की या महात्मा गांधी की हो।

हम माने या न माने भौतिक वाद और व्यापार की चकाचौंध में खबर पर विज्ञापन भारी पड़ रहा है एक समय था जब अखबारों में चार लाइन छपने का भी असर होता था लेकिन आज पूरे पेज पर स्याही उड़ेलने पर भी कुछ नहीं होता। निःसन्देह आज पत्रकारिता एक भयंकर संकट के दौर से गुजर रही है अखबारों को सरकार द्वारा विज्ञापन देने के पीछे शायद पूर्व में कुछ ऐसी मंशा रही होगी कि लोक में घटित सच सरकार के सामने आए और समाचार-पत्र की भी मदद ली जाए लेकिन चीजें बदल रही हैं ’’मेरी बिल्ली मुझ पर म्यांऊ’’ नहीं चलेगा। वो गया जमाना जब निन्दक नियरे राखिए वाक्य का आज वही ज़हर बन रहा है। सरकारों में आलोचना सहने की शक्ति जाती रही है इसलिए प्रेस को आये दिन सरकारों का भाजन बनना पड़ता है वर्तमान में राजस्थान पत्रिका इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। 

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