ये बोल, संसद को सडक से बदतर कर दिया

राकेश दुबे@प्रतिदिन। सडक और सिनेमा से चलकर अब अभद्र भाषा संसद में प्रविष्ट हो गई है। सड़क और सिनेमा के ये संवाद भारत के सभ्य और भद्र समाज ने हमेशा नकारे हैं। ऐसे में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि अभद्र भाषा की आवश्यकता अकस्मात् नेताओं में क्यों महसूस की जाने लगी है? यह लोकप्रियता हासिल करने की शार्टकट महत्वाकांक्षा है या फिर स्वयं की अक्षमता को अप्रकट रखने के प्रयास की कुण्ठित निराशावादिता है। 

सत्ता की लोलुपता की मदांधता और सत्ता की विलुप्तता की कुण्ठा, नेताओं में सत्ता के प्रति तृष्णा का जो भाव उजागर करती है, वह उनकी प्रयुक्त भाषाओं में इन दिनों स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। जनता दर्शकदीर्घा में बैठकर इस ओर से उस ओर फेंके जा रहे अमर्यादित बयानों की गेदों की उछालें, दिशाएं और स्कोर देखने में खुश है। हम सभी बँट रहे हैं पुराने नए बयानों और शब्दों के विभाजनों के बनाए जा रहे दो कॉलमों में। कोई किसी से कम प्रतीत नहीं होता। सभी एक से बढ़कर एक हैं, घटी है तो सिर्फ संसद की मर्यादा, आहत हुआ है तो सिर्फ संविधान का गौरव और झुका है तो सिर्फ भारत का सिर।

किसी ने भी यह नही सोचा कि अभद्रता इतनी प्रभावी हो जाये कि आदर्शवाद की ये बातें उपहास लगने लगी हैं। क्या पद और क्या पदों की गरिमाएं? अभद्रता के बाणों से आहत सब हो रहे हैं, लेकिन इनमे  कोई भी आत्मविश्लेषण को तैयार नहीं होता। आरोप-प्रत्यारोप के दौरों ने भारतीय राजनीति को अभद्र भाषा के जिस दलदल में लाकर फँसा दिया है, उससे उबरने के आसार दिखाई नहीं देते, क्योंकि चुनावी दंगल नियमित अंतरालों पर होने ही हैं और उनमें ये प्रहार कहीं न कहीं राजनीतिक उपयोगिता भरे होते हैं।

अभद्र भाषा के प्रयोग ने राजनीति को पहले से कहीं अधिक सस्ता बना दिया है। मर्यादित होना सीमाओं में बंधे होने की प्रवृत्ति का परिचायक होता है, जहां भाषा की भी अपनी सीमाएं निर्धारित होती हैं। क्या बढ़ते प्रदूषण के कारण लोगों में कम होती जा रही प्रतिरक्षा क्षमता की तरह ही राजनीतिक प्रदूषण में हो रही वृद्धि से भारतीय राजनीति की सीमाओं के बंधनों की धैर्यशीलता क्षमता भी कम होती जा रही है? कोई किसी को अभद्र से अभद्र टिप्पणी करने में शर्म महसूस नहीं करता, लेकिन अपने लिए सुनकर तिलमिलाना आज की राजनीतिक प्रवृत्ति बनती जा रही है। वर्तमान सन्दर्भों से सभी परिचित है, स्नानघर में सब वस्त्र वस्त्र विहीन होते है। जन सभा और संसद को मुक्त रखिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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