इस बजट से पहले पूरी तरह सोचिये, जेटली जी !

राकेश दुबे@प्रतिदिन। यह अनुमान यूँ ही चर्चा में नहीं है कि देश की 98 प्रतिशत संपत्ति पर महज 1 प्रतिशत लोगों का कब्जा है। यों तो आजादी के बाद से ही हमारी मिश्रित अर्थव्यवस्था में संपत्ति का केंद्रीकरण होने लगा था और आमदनियों में भी काफी फर्क रहा है, लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद तो आमदनियों में बेहिसाब फर्क आ गया है। इस दौर में विकास पर ऐसी चर्चाएं हुई कि बढ़ती गैर-बराबरी से आंख मूंद लिया गया. उसकी चर्चा भी दकियानूसी मानी जाने लगी।

दलील यह थी कि विकास जितनी तेजी से होगा यानी एक वर्ग में संपत्ति जितना अधिक बढ़ेगी, उतनी ही तेजी से वह रिस कर नीचे की ओर पहुंचेगी। इस तरह देश में निचले आदमी की भी क्रय-शक्ति बढ़ती रहेगी। इसे ‘ट्रिकल डाउन सिद्धांत’ कहा गया लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि नीचे के लोगों की आमदनी इतनी छीजने लगी कि वे थोड़ी भी बचत के काबिल नहीं रहे। पिछले एक दशक में नीचे के लोगों में अनिश्चितताओं का दायरा लगातार बढ़ता गया है।

इसका असर किसानों की आत्महत्या के रूप में भी दिखा है। यह भी एक वजह है कि नोटबंदी से रोजगार गंवाने के कारण सबसे ज्यादा निचले पायदान के लोगों को ही तकलीफ उठानी पड़ रही है| हालांकि नोटबंदी के समर्थकों और सरकारी पैरोकारों की बात पर यकीन करें तो नोटबंदी का एक मकसद लगातार आय में बढ़ती असामनता को भी कम करना है।

लेकिन अभी तक ऐसे बेहद कम उदाहरण हैं कि अमीरों को किसी तरह का संकट उठाना पड़ा हो। अगर कृषि उपज फल-सब्जियों की बात छोड़ दें तो खुदरा बाजार में महंगाई भी नहीं घटी है। यह भी कहा जा रहा था कि इससे जमीन-जायदाद की कीमतें कुछ घटेंगी और उनसे भी असमानता कुछ कम करने में मदद मिलेगी, लेकिन यह भी होता नहीं दिख रहा है।

अगर सरकार वाकई गंभीर है तो उसे बजट में ऐसे उपाय करने चाहिए, जिनसे गरीबों की आय बढ़ाने, उन्हें रोजगार की सुरक्षा देने का माहौल पैदा हो। सिर्फ रियायतें अगर बड़े उद्योगों को दिया जाता रहेगा तो इससे एकतरफा विकास ही होता रहेगा। आखिर देश में आमदनी और संपत्ति के बंटवारे का मामला बाजार के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता, खासकर जिस पर बड़ी पूंजी का नियंत्रण हो।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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