राकेश दुबे@प्रतिदिन। नोट बंदी/बदली के दौरान अब भी अमानुषिक बर्ताव की खबरें आ रही है। मौत जिल्लत परेशानी और सरकारी चेतावनियों के बीच सरकार का वह आश्वासन कहीं खो गया है। जिसमे सरकार ने जनता को आश्वस्त किया था कि नये नोटों की कमी से परेशानियां एकाध दिन ही मेहमान रहेंगी। लेकिन अब जनता के साथ सरकार को भी समझ में आ गया कि परेशानियां न तो कुछ दिनों की हैं और न छिटपुट।
सरकार ने अपने स्तर पर तैयारियों का जो खाका खींचा था, समस्याएं उससे कहीं ज्यादा बड़े रूप में सामने आई। लोगों की लम्बी-लम्बी लाइन और अफरा-तफरी को बैंक अधिकारी सलीके और सहूलियत से निपटा नहीं पा रहे। पोस्ट ऑफिस में भी रुपये बदले जाने के ऐलान के मुताबिक तैयारी मुकम्मल नहीं पाई गई। चार हजार रुपये के पुराने नोटों को बदलकर लिये जा सकेंगे, इस घोषणा पर भी बैंक व्यापक रूप में अमल करने में नाकाम रहे। कैश की कमी बताकर ग्राहकों को चार की जगह सिर्फ ढाई हजार रुपये ही दिये जा रहे हैं।
वैसे किसी बड़े फैसले को लागू करने में इस तरह की दिक्कतें आती हैं और यह मामला भी अपवाद नहीं है। मगर देश की बनावट इतनी परतदार है कि सरकार की तमाम तैयारियां भी छितरा जाती हैं। कोढ़ में खाज यह कि एटीएम खुलने से राहत मिलने की खबर भी बेमानी साबित हुई।
वहां नोट वक्त पर नहीं डाले गए। मतलब कि नोट ने हर किसी को नचाया। किलोमीटर लम्बी साइज वाली कतारों में सबको खड़े करा दिया। यह मंजर आगे भी रहने वाला है क्योंकि जरूरत सबकी है और नोट गिनती के हैं। ऐसे में सरकार को पिछले चार दिनों के हालात की समीक्षा करनी होगी। उन दिक्कतों के हल तलाशने होंगे, जिनकी वजह से आम जन में निराशा और गुस्सा है। वैसे, सरकार के लिए राहत की बात है कि जनता ने उसके फैसले को सराहा है। यह शुभ संकेत हैं, पर नोटबंदी के फैसले को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की अहम जरूरत है। यह संदर्भ देश की अर्थव्यवस्था में नये व स्वस्थ रक्त संचार का है। आर्थिक अवसर की समानता को संभव करने का है। घोषणाओं के बावजूद व्यापारी या प्रतिष्ठान मदद नहीं कर रहे। इससे उस मकसद के ही चोटिल हो जाने का खतरा है, जो सरकार का अभिप्रेत रहा है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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