पृथ्वी के ठीक मध्य में स्थित हैं महाकाल, वैज्ञानिक भी मानते हैं उज्जैन के चमत्कार

प्राचीन भारत की समय-गणना का केन्द्र-बिन्दु होने के कारण ही काल के आराध्य महाकाल हैं, जो भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। हिन्दुस्तान की ह्रदय-स्थली उज्जयिनी की भौगोलिक स्थिति अनूठी है। खगोल-शास्त्रियों की मान्यता है कि उज्जैन नगर पृथ्वी और आकाश के मध्य में स्थित है। भूतभावन महाकाल को कालजयी मानकर ही उन्हें काल का देवता माना जाता है। काल-गणना के लिये मध्यवर्ती स्थान होने के कारण इस नगरी का प्राकृतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी बढ़ जाता है। इन सब कारणों से ही यह नगरी सदैव काल-गणना और काल-गणना शास्त्र के लिये उपयोगी रही है। इसलिये इसे भारत का ग्रीनविच माना जाता है। 

यह प्राचीन ग्रीनविच उज्जैन देश के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग 1658 फीट ऊँचाई पर बसी है। इसलिये इसे काल-गणना का केन्द्र-बिन्दु कहा जाता है। यही कारण है कि प्राचीन-काल से यह नगरी ज्योतिष-शास्त्र का प्रमुख केन्द्र रही है। 

इसके प्रमाण में राजा जय सिंह द्वारा स्थापित वेधशाला आज भी इस नगरी को काल-गणना के क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध करती है। भौगोलिक गणना के अनुसार प्राचीन आचार्यों ने उज्जैन को शून्य रेखांश पर माना है। कर्क रेखा भी यहीं से जाती है। इस प्रकार कर्क रेखा और भूमध्य रेखा एक-दूसरे को उज्जैन में काटती है। यह भी माना जाता है कि संभवत: धार्मिक दृष्टि से श्री महाकालेश्वर का स्थान ही भूमध्य रेखा और कर्क रेखा के मिलन स्थल पर हो, वहीं नाभि-स्थल होने से पृथ्वी के मध्य में स्थित है। 

इन्हीं विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के कारण काल-गणना, पंचांग का निर्माण और साधना की सिद्धि के लिये उज्जैन नगर को महत्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार जब उत्तर ध्रुव की स्थिति पर 21 मार्च से प्राय: 6 मास का दिन होने लगता है, तब 6 मास के 3 माह व्यतीत होने पर सूर्य दक्षिण क्षितिज से बहुत दूर हो जाता है। इस समय सूर्य ठीक उज्जैन के मस्तक पर रहता है। उज्जैन का अक्षांश एवं सूर्य की परम क्रांति दोनों ही 24 अक्षांश पर मानी गयी है। इसलिये सूर्य के ठीक नीचे की स्थिति उज्जयिनी के अलावा विश्व के किसी नगर की नहीं है।

वराह पुराण में उज्जैन नगरी को शरीर का नाभि देश (मणिपूर चक्र) और महाकालेश्वर को इसका अधिष्ठाता कहा गया है। महाकाल की यह कालजयी नगरी विश्व की नाभि-स्थली है। जिस प्रकार माँ की कोख में नाभि से जुड़ा बच्चा जीवन के तत्वों का पोषण करता है, इसी प्रकार काल, ज्योतिष, धर्म और आध्यात्म के मूल्यों का पोषण भी इसी नाभि-स्थली से होता रहा है। उज्जयिनी भारत के प्राचीनतम शिक्षा का केन्द्र रहा है। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा, उनका संवर्धन एवं उसको अक्षुण्ण बनाये रखने का कार्य यहीं पर हुआ है। सत-युग, त्रेता-युग, द्वापर-युग और कल-युग में इस नगरी का महत्व प्राचीन शास्त्रों में बतलाया गया है।

उज्जयिनी से काल की सही गणना और ज्ञान प्राप्त किया जाता रहा है। इस नगरी में महाकाल की स्थापना का रहस्य यही है तथा काल-गणना का यही मध्य-बिन्दु है। मंगल गृह की उत्पत्ति का स्थान भी उज्जयिनी को माना गया है। यहाँ पर ऐतिहासिक नव-ग्रह मंदिर और वेधशाला की स्थापना से काल-गणना का मध्य-बिन्दु होने के प्रमाण मिलते हैं। इस संदर्भ में यदि उज्जयिनी में लगातार अनुसंधान, प्रयोग और सर्वेक्षण किये जायें, तो ब्रह्माण्ड के अनेक अनछुए पक्षों को भी जाना जा सकता है।

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