क्यों हो रहे हैं खूंखार हमारे बच्चे ? - Pratidin

भारतीय समाज ने देश के सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले पर बिल्कुल गौर नहीं किया गया जिसमे कहा गया था कि स्कूल में सहपाठी द्वारा की गई हत्या संपूर्ण देशवासियों की चिंता का सबब है़ उसे किसी एक बच्चे द्वारा दूसरे की जान लिये जाने या स्कूल प्रबंधन अथवा शासन-प्रशासन की लापरवाही या संवेदनहीनता का मामला नहीं माना जा सकता़ इसलिए पूछना ही होगा कि हम कैसी सामाजिक व्यवस्था में जी रहे हैं, जिसमें अगली पीढ़ी को भी उस मानसिकता से नहीं बचा पा रहे, जो एक ओर उन्हें अपराध करने को उकसाती है, तो दूसरी ओर अपराधों का शिकार भी बनाती है?

अगर समाज इस पर गंभीरता से सोचता तो नये साल के पहले ही दिन एक इंटर कॉलेज से यह खबर नहीं आती आयी कि कालेज के एक अवयस्क छात्र द्वारा अपने सहपाठी की क्लास रूम में ही गोली मारकर हत्या कर दी गयी |इस हत्या से एक दिन पहले ही दोनों छात्रों के बीच क्लास रूम की एक खास सीट पर दावेदारी को लेकर झगड़ा हुआ था| जो छात्र दावेदारी हार गया, वह बदले की भावना से इस कदर भर गया कि प्रतिद्वंद्वी का दोस्त व सहपाठी होना दोनों भूल गया|अगले दिन स्कूल बैग में अपने चाचा की लाइसेंसी पिस्तौल छिपा कर लाया और प्रतिद्वंद्वी को गोली मार उसकी जान ले ली| इस घटना के बाद छात्रों में भगदड़ मच गयी़ सूचना पाकर पुलिस मौके पर पहुंची और गोली चलाने वाले छात्र से पिस्तौल बरामद की| अपना बेटा गंवाने वाला परिवार कि कुछ भी कहे लाख टके का सवाल है कि कॉलेज प्रशासन पिस्तौल के साथ छात्र को क्लास रूम तक क्यों पहुंचने दिया?

यह घटना अभूतपूर्व न होकर भी इतनी गंभीर है कि कई दूसरे, अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े सवालों के जवाब की भी मांग करती है|इसके और भी कारण है़ं विकसित देशों के पाजामे में पैर डालने और उनकी नकल करने की भरपूर कोशिशों के बावजूद हम अमेरिका नहीं बन पाये हैं, जहां के समाज में इस तरह गोली चलाने की घटनाएं होती रहती हैं और उन्हें सामान्य आपराधिक गतिविधि माना जाता है|

वहां तो हमारी पुलिस के उलट वहां की पुलिस सुनिश्चित करती है कि ऐसी वारदातों का कोई भी दोषी माकूल सजा से बच कर आगे ऐसी वारदातों की प्रेरणा न बनने पाए| आपको भी याद होगा सितंबर, २०१७ में हरियाणा के गुरुग्राम स्थित एक निजी स्कूल में एक मासूम छात्र की निर्मम हत्या कैसे देश की चेतना पर छा गयी थी, कैसे क्षुब्ध अभिभावक उसे लेकर उग्र प्रदर्शन पर उतरे थे़?

इस व्यवस्था के कारण ही समाज की मूल इकाई कहे जाने वाले परिवारों का माहौल भी हिंसा व तनाव से बुरी तरह भरा हुआ है़| हमारे चारों ओर फैलते जा रहे भय, असुरक्षा, क्रोध, क्षोभ और बदले की संस्कृति, जो बच्चों व किशोरों के मन-मस्तिष्क को प्रदूषित कर रही है, इसके लिए पुलिस प्रशासन और सरकारों के साथ क्या यह व्यवस्था भी जिम्मेदार नहीं है?

भारत में अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों की समुचित देखरेख व निगरानी नहीं किया जाना उनके हिंसक अपराधों की ओर आकर्षित होने का सबसे बड़ा कारण है़|हिंसात्मक फिल्मों, निरुद्देश्य उत्तेजक मनोरंजन से भरे टीवी सीरियलों व वीडियो गेमों के साथ क्लेशकारी सामाजिक व पारिवारिक वातावरण इस कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है़|इन सबके चलते भविष्य के नागरिकों के कोमल मन कठोर हो रहे हैं और उनमें सहनशीलता व धैर्य जैसे सकारात्मक गुणों का ह्रास होता जा रहा है़ |वे चिड़चिड़े, जिद्दी, उन्मादी और बदले की भावना से पीड़ित होते जा रहे है़ं |सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण की विषाक्तता के कारण, जो बच्चे पहले मन के सच्चे व सारे जग की आंख के तारे हुआ करते थे और किशोर होने पर भी उन पर ज्यादा मैल नहीं चढ़ पाता था, वे कब किस विकार से ग्रस्त या उससे जन्मी वहशत के शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है़|

देश में हर सेकेंड बच्चों या किशोरों के खिलाफ कोई न कोई ऐसा अपराध होता है, जिसमें उनसे उनकी मासूमियत छीन ली जाती है़ आगे चल कर जब वे असुरक्षा और भेदभाव से पीड़ित होते हैं, तो उनमें भी आपराधिक मनोवृत्ति पनपने लगती है और वे अपराधों में लिप्त होकर अपने साथ देश का भविष्य भी असुरक्षित करने लग जाते हैं|

मुश्किल यह है कि हम बच्चों व किशोरों को देश का भविष्य तो कहते हैं, लेकिन उनके भविष्य की सुरक्षा को देश के भविष्य की सुरक्षा की तरह नहीं लेते़ ऐसे में इस सवाल का जवाब नकार दिया जाना स्वाभाविक ही है कि जिन हाथों में किताब व कलम होनी चाहिए, उनके मन में इतना जहर कौन भर रहा है? देश में हो रहे अपराधों के आंकड़े गवाह हैं कि बच्चों को यह खूंरेजी वे बड़े ही सिखा रहे हैं, जो बच्चों के सामने या बच्चों की तरह झगड़ने से परहेज नहीं करते|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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