दुष्काल: आर्थिक उथल-पुथल और लोक निर्माण / EDITORIAL by Rakesh Dubey

कोविड महामारी की वजह से पैदा हुए संकट ने भारी आर्थिक उथलपुथल मचाई है। करोड़ों लोगों का काम-धंधा छिन गया है और उन्हें अपना भविष्य भी अनिश्चित दिख रहा है। ऐसे समय में बड़े स्तर पर रोजगार पैदा कर सकने वाली परियोजनाओं के बारे में नए सिरे से सोचने एवं अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करना अवश्यंभावी है। यह कार्य राष्ट्रीय एवं स्थानीय दोनों ही स्तरों पर किया जाना होगा और इनसे ऐसी परिसंपत्तियों का सृजन हो जो कई पीढिय़ों तक बनी रहें।

संकट के समय लोक निर्माण कार्यों का इस्तेमाल तमाम वैचारिक आयामों में आर्थिक नीति के साधन के तौर पर होता है। अमेरिका कोविड संकट के आर्थिक दुष्प्रभावों से निपटने के लिए  20लाख करोड़ डॉलर की राजकोषीय राहत की घोषणा करने वाले शुरुआती देशों में से एक रहा। विकसित देशों में राजकोषीय समझदारी का सर्वाधिक पालन करने वाले जर्मनी ने भी हालात के आगे घुटने टेके हैं और कोविड महामारी से पैदा आर्थिक दुश्वारियों से निपटने के लिए राजकोषीय राहत की घोषणा की है। भारत सरकार ने भी 50000 करोड़ रुपये वाली ग्रामीण लोक निर्माण योजना (गरीब कल्याण रोजगार अभियान) शुरू की है जिसका मकसद कोरोना काल में अपने गांव लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को रोजगार के अवसर मुहैया कराना है।

आपदा के मामलों में भारत के सबसे शुरुआती प्रयोग 18वीं सदी के अंत समय में अंजाम दिए गए थे जिनमें रोजगार देने पर खास जोर था। वर्ष 1784 में भीषण अकाल के समय अवध के नवाब आसफुद्दौला ने अपनी अवाम को रोजगार देने के लिए एक लोक निर्माण कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की थी। इस तरह लखनऊ के मशहूर बड़ा इमामबाड़ा मस्जिद परिसर के निर्माण की शुरुआत हुई और यह 1791 में बनकर पूरा हो गया।

वैचारिक कारणों से ब्रिटिश शासकों ने एक कदम पीछे खींचा। दरअसल उनके अहस्तक्षेप के रवैये की वजह से विक्टोरिया काल में आए भीषण अकालों के दौरान करोड़ों लोगों की मौत हो गई थी। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बड़ा इमामबाड़ा जैसी दूसरी परियोजनाएं भी चलाई गईं लेकिन 20वीं सदी में कीन्स के विकास मॉडल के प्रतिपादन के बाद ही सरकारों ने बड़े आर्थिक संकट के समय लोक निर्माण कार्यों को व्यवस्थागत रूप देकर रोजगार एवं आय को बढ़ाने के प्रयास किए|

परिसंपत्ति निर्माण को केंद्र में रखने वाले लोक निर्माण परियोजनाएं दो प्रकार में बांटी जा सकती हैं। पहली, ग्रामीण सड़कें, स्कूल, क्लिनिक, पंचायत कार्यालय, जल स्रोतों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार जैसी परियोजनाएं अपेक्षाकृत छोटे आकार की होती हैं। गरीब कल्याण रोजगार अभियान में यही नजरिया अपनाया गया है। हालांकि इनमें स्थानीय लोगों की कहीं अधिक भागीदारी की संकल्पना की गई है। स्थानीय समुदाय न केवल इन परियोजनाओं के निर्माण में अधिक बड़ी भूमिका निभाने वाले हैं बल्कि इनके रखरखाव के काम में भी उनका जुड़ाव बना रहेगा। यह कहीं अधिक सरल परियोजनाओं की पहली कतार है जहां से गांव में स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन को असली बढ़ावा मिलेगा। 

दूसरी तरह की परियोजनाएं बड़ी होती हैं और उनमें अधिक पूंजी की भी जरूरत होती है। मसलन, राष्ट्रीय एवं राज्य राजमार्ग, जिलों की बड़ी सड़कें, तटीय आर्थिक क्षेत्र, कम लागत वाली आवासीय परियोजनाएं, राज्यों में नई राजधानियों का निर्माण, बड़ी सिंचाई परियोजनाएं और हरेक घर तक 24 घंटे पानी की आपूर्ति। इन परियोजनाओं के निर्माण में सबसे कारगर निर्माण तरीकों के इस्तेमाल पर जोर दिया जाना चाहिए और इस ढांचे के भीतर अधिकतम लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य रखना चाहिए।

अब भारत, विश्व बैंक ने 2014 में लोक निर्माण कार्यक्रमों के बारे में एक अध्ययन में कहा था, 'वृहद स्तर पर लोक निर्माण कार्यक्रम शुरू करने की मौजूदा प्रवृत्ति की जड़ें काफी हद तक महाराष्ट्र के 1970 के अनुभवों में निहित हैं। उस समय महाराष्ट्र भीषण अकाल का सामना कर रहा था जिसकी वजह से उसकी करीब 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीब हो चुकी थी।'ततसमय महाराष्ट्र में शुरू की गई ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ही बाद में भारत के साथ दुनिया भर में आने वाली ऐसी योजनाओं की अग्रदूत बनी । इसी रिपोर्ट में कहा गया, 'लोक निर्माण कार्यक्रम सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षा के एक जाल के तौर पर उभरे हैं। यह न केवल निम्न आय वाले देशों एवं कमजोर राज्यों बल्कि वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से उच्च बेरोजगारी से जूझ रहे मध्यम-आय वाले देशों के लिए भी मददगार रहा है।'

ये सारी घटनाएँ लोक निर्माण की चिरस्थायी प्रकृति को रेखांकित करती हैं। पहली बात, संकट के समय लोक निर्माण कार्यों का इस्तेमाल तमाम वैचारिक आयामों में आर्थिक नीति के साधन के तौर पर होता है। लेकिन असली चुनौती यह है कि रोजगार प्रदान करने के साथ टिकाऊ परिसंपत्ति के निर्माण भी हों। हाल के दशकों में जन राहत कार्यक्रमों के तहत चलाए गए तमाम अभियानों में कोई टिकाऊ परिसंपत्ति नहीं बन पाई है। इस मायने में ये कार्यक्रम बड़ा इमामबाड़ा या न्यू डील या जर्मन ऑटोबॉन जैसे पुराने दौर के कार्यक्रमों से काफी अलग हैं जिनमें दीर्घकालिक महत्त्व की इमारतें एवं उपयोगी संसाधन बनाए गए।

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