सदियों से मौजूद “फिजिकल डिस्टेनसिंग” को हम भूल गये थे / EDITORIAL by Rakesh Dubey

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नई दिल्ली। कोरोना के साथ जो नये शब्द आये हैं उनमे से एक है “सोशल डिस्टेनसिंग”। अगर प्रयोग में देखा जाये तो यह “फिजिकल डिस्टेनसिंग” है। आदमी, आदमी से एक मीटर दूर। पता नहीं किसने यह शब्द सुझाया,जानकारों का मानना है कि इस कोरोना दुष्काल का सबसे ज्यादा तांडव इटली में दिखा तब चीन के लोगों ने यह प्रक्रिया सुझाई और नाम दे दिया “सोशल डिस्टेंसिंग”, दुष्काल के मारे विश्व ने ठीक से नहीं सोचा। आज जब समझ में आया तो भारत में गाँधी जी का सारा संघर्ष तो इसी “सोशल डिस्टेनसिंग” से ही था, जिसका नाम अस्पृश्यता या छुआछूत था। आज नाम कुछ भी हो इसका प्रयोग जिस सन्दर्भ में किया जा रहा है, वो तो “फिजिकल डिस्टेनसिंग” है।

इस “फिजिकल डिस्टेनसिंग” का प्रयोग भारत में सदियों से वैष्णव मत में होता आया है। इस रीति-नीति को पुष्टिमार्ग के नाम से जाना जाता है, इसके प्रणेता महाप्रभु वल्लभाचार्य थे। यहां जात-पात का कोई वर्गीकरण नहीं है। वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित ब्रह्म सम्बंध दीक्षा इसी की परिचायक है। ब्रह्म सम्बंध दीक्षा लेने के बाद कोई भी प्रभु की सेवा कर सकता है। यदि कोई ब्राह्मण भी है और उसने ब्रह्म संबंध नहीं लिया है तो वह पुष्टिमार्गीय परम्परा के अनुसार निर्धारित ठाकुरजी की नियमित सेवा का अधिकारी नहीं माना जाता। इन सेवा नियमों के साथ सेवा करने वाले व्यक्ति के लिए भी कुछ नियम बनाए गये थे, जो सैकड़ो साल से यथावत हैं।इनमे प्रमुख अस्पृश्यता एक है। 

जिसमे तन-मन की स्वच्छता को अनिवार्य माना गया न कि जात-पात को। सेवा में उपस्थित भक्त सबसे दूरी बनाकर ये कार्य करता है यथा- प्रभु के बिराजित होने वाले स्थान को स्वच्छ रखना, उनके भोजन को स्वच्छ स्थान पर पकाना, भोजन की स्वच्छता का ध्यान रखना, स्वयं को साफ-सुथरा रखना। इन सभी बातों के पीछे मुख्य बात यह है कि पुष्टिमार्ग में ठाकुरजी एक शिशु स्वरूप हैं। जब आज हम बच्चों के लिए हाइजीनिक वातावरण की बात करते हैं, यही बात वल्लभाचार्य सरल शब्दों में बरसों पहले कह गए। जहां बालक है वह स्थान साफ-सुथरा होना चाहिए, उसके खाने-पीने की सामग्री भी स्वच्छ व ताजा होनी चाहिए और बालक को संभालने वाले भी स्वच्छ होने चाहिए।

गाँधी जी भी वैष्णव थे। उन्होंने हरिजन में 11-2-33 को लिखा है “शास्त्रों में एक तरह की हितकारी अस्पृश्यता का विधान है, उस तरह की अस्पृश्यता सभी धर्मों में पाई जाती है। ऐसी अस्पृश्यता तो स्वच्छता के नियमों का ही अंग है। आज अपनाई जा रही “फिजिकल डिस्टेनसिंग” का उद्देश्य यही तो है, भले ही उसका नाम “सोशल डिस्टेनसिंग”है।

गाँधी जी के बाद आज़ाद भारत में “फिजिकल डिस्टेनसिंग” हर जगह मौजूद थी। किसी अस्पताल से देखकर आने पर, संस्कारी हिन्दू परिवारों में, स्कूल, कालेज, सिनेमा की टिकट खिड़की, रेल टिकट खिड़की सबमें महिला पुरुष अलग [“सोशल डिस्टेनसिंग”] होते थे। महिला उत्पीडन सम्बन्धी अपराध की दर कम होती थी, कोई भले ही इसे तब अपराध उजागर कम होने की बात कहें, पर समाज में इस फासले का प्रभावकारी असर था। आज इसे प्रगति से जोड़ने वालों को इतिहास, आज़ादी और आज़ादी के बाद का सिंहावलोकन करना चहिये।भारत में विदुषियों की संख्या तब भी कम नहीं थी। विषयांतर न हो, इसलिए फिर मूल बात “सोशल डिस्टेनसिंग” पर | इस शब्द से निकली ध्वनि, अर्थ और प्रक्रिया से कुछ अर्थ निकले और कुछ अर्थ लोगों ने निकाले। शब्द के पीछे मूल भावना “सर्वे सन्तु निरामयाः थी। ख़ुशी की बात है,भारत के बृहत समाज ने इसका यही अर्थ लिया।

जहाँ तक मेरा निजी अनुभव है वैष्णव परिवार में जन्म के साथ दादी को मन्दिर की सेवा करने के पूर्व स्नान करना, सेवा पूरी होने तक किसी व्यक्ति से स्पर्श न करना, देखा। एक बार पूजा करने जाते समय लिपट कर पूछ ही लिया “माँ यह अपरस [अस्पृश्य] क्या है ?” उनका जवाब था ठाकुर जी छोटे हैं, उन्हें कोई अशुद्धि न लगे इसलिए किसी से छूते नहीं है और इसके बाद एक हल्की चपत के साथ माँ फिर से नहाने चली गई। इस दुष्काल में आया “सोशल डिस्टेनसिंग” शब्द मन में बसे, वैष्णव संस्कार और गाँधी की समाजिक शिक्षा ने उथल-पुथल मचा रखी थी। बड़े भ्राता विजय दत्त श्रीधर से पूछा क्या सही है उन्होंने स्पष्ट किया जो प्रक्रिया अपनाई गई है वो “फिजिकल डिस्टेनसिंग” है नाम उसका चल निकला है “सोशल डिस्टेनसिंग”।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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