कितने पिछड़े हैं हम जन स्वास्थ्य के मोर्चे पर | EDITORIAL by Rakesh Dubey

भोपाल। हाल ही में मिले ये आंकड़े सिर्फ चौंकाने के लिए नहीं लिखे जा रहे हैं, बल्कि हमारे अपने भारत की दुर्दशा बताने के लिए उल्लेखित किये जा रहे हैं कि तेज गति से भारत स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करता हैं | अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वायदा है कि २०२५ तक इस खर्च को घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत की जगह २.५ प्रतिशत तक बढ़ा दिया जायेगा| सवाल यह है कि तब यह सरकार रहेगी या तत्समय कुर्सी पर काबिज सरकार की प्राथमिकता बदल जाएगी | अभी सरकार इस मद यानि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर मात्र ३ रूपये रोज खर्च करती है |

हाल ही में जारी आंकड़े कहते हैं सार्वजनिक स्वास्थ्य के मद में हमारा देश अभी अपने कुल घरेलू उत्पादन का करीब एक फीसदी हिस्सा ही खर्च करता है, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और नॉर्वे जैसे अनेक विकसित देशों में यह आंकड़ा सात से नौ फीसदी के बीच है| भारत से कहीं अधिक खर्च पड़ोसी देश और कमतर अर्थव्यवस्था के देश करते हैं| जून में सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल में बताया गया था कि हर नागरिक पर इस मद में सरकारी खर्च १११२ रुपया सालाना यानी महज तीन रुपया रोजाना है|

यह आंकड़ा २०१५-१६ के अध्ययन पर आधारित है और इसमें २००९ -१० के ६२१ रुपये प्रति व्यक्ति खर्च से कुछ बढ़ोतरी हुई है| सरकार ने आयुष्मान भारत योजना के तहत हर गरीब परिवार को पांच लाख बीमा देने का अभियान शुरू किया है, जिससे ५० करोड़ से अधिक लोगों को राहत मिलने की संभावना है| साल २०१६ में लगभग ४३ करोड़ लोग (३४ फीसदी आबादी) ही बीमित थे|यदि नयी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया गया तथा केंद्र, राज्य सरकारों और अस्पतालों के बीच समुचित तालमेल रहा, तो उपचार के लिए लोगों की जेब से दबाव कम हो सकता है |वर्ष २०१७ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक अध्ययन में जानकारी दी थी कि भारत में लोगों को उपचार के खर्च का करीब ६८ प्रतिशत हिस्सा खुद देना पड़ता है| इस संदर्भ में वैश्विक औसत सिर्फ १८.०२ प्रतिशत है|

यह तथ्य किस से छिपा नहीं है कि हमारे देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा या तो गरीब है या फिर निम्न आयवर्ग से आता है| बीमारी और कुपोषण का कहर ऐसा है कि उपचार के खर्च की वजह से हर साल साढ़े चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे आ जाते हैं| सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा न के बराबर निवेश के कारण बदहाल है और ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक उपचार केंद्र समुचित संख्या में नहीं हैं|ऐसे में रोगी को निजी अस्पतालों की शरण में जाना पड़ता है, जहां उपचार के लिए मनमाने ढंग से पैसा वसूला जाता है| स्वास्थ्य केंद्रों के न होने और महंगे उपचार के कारण लोग शुरू में ही बीमारी की जांच नहीं कराते हैं और बाद में यह गंभीर हो जाती है| ऐसे में बीमा योजनाओं के साथ बुनियादी ढांचे को विकसित करने तथा समूची स्वास्थ्य सेवा को नियमन के दायरे में लाने की दिशा में भी पहलकदमी जरूरी है| 

सरकार की जन आरोग्य, मिशन इंद्रधनुष, बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसी सरकारी योजनाएं सकारात्मक पहल हैं और २०२२ तक डेढ़ लाख स्वास्थ्य केंद्र खोलने का लक्ष्य भी सराहनीय है, पर कुल घरेलू उत्पादन के दो प्रतिशत हिस्से को स्वास्थ्य में लगाने का २०१० का लक्ष्य भी अभी तक पूरा नहीं हो सका है|

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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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