हुजुर ! पत्रकार आपके लिए ही काम करते हैं | EDITORIAL by Rakesh Dubey

यह कहना बड़ा आसान है, मीडिया बिका हुआ है। उससे अधिक आसान यह कहना है कि मीडिया ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ दिया और बात कह कर पलटने वालों के लिए सबसे आसान है मीडिया पर नासमझी का आरोप लगाना। पत्रकार यह सब सहन करते हैं और भारत में सबसे ज्यादा सहन करते हैं। ऐसा क्यों होता हैं ? क्योंकि भारत में पत्रकारों के मालिक यानि आप, उनके साथ खड़े नहीं होते। विश्व के अन्य देशों की तरह भारत के पत्रकार अपना मालिक आम जनता को मानते हैं, क्योंकि वे मूलतः समाज लिए ही काम करते हैं, जो शोषित और दबा हुआ, प्राथमिकता है। अख़बार निकालने वाले पूंजीपति के लिए पत्रकारों से इतर “प्रबन्धक” भी काम करते हैं। दुर्भाग्य से श्रमजीवी पत्रकारों के नेतृत्व करने वाली संस्था “सम्पादक” का पदनाम खुले आम चोरी हो गया और अपने नाम के सामने कहीं “समूह” तो कहीं “प्रबंध” नाम के विशेषण लगा कर, “मुख्य सम्पादक” को अंगूठा दिखा रहा है। पत्रकारों की मूल मालिक आम जनता है, जिसके लिए वे काम करते हैं। हे मालिकों ! आपके सेवकों में कुछ घुसपैठिये घुस आये हैं, इन्हें पहचानिए।

हर आज़ाद देश में उन पत्रकारों के लिए संकट है, जो जनता की आवाज़ बनने की कोशिश करते हैं। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित गार्जियन जैसा प्रतिष्ठित अखबार संघर्ष कर रहा हैं, जबकि ब्रिटेन के अखबारों का मॉडल दूसरी तरह का है। वहां लोग खबरें पढ़ने के लिए पूरी कीमत अदा करने को तैयार रहते हैं। वहां गार्जियन, टाइम्स और इंडिपेंडेंट जैसे अखबार हैं, जो लगभग दो पाउंड यानी लगभग 180 रुपये में बिकते हैं, लेकिन भारत में मालिक [हिंदी पाठक] अखबार के लिए बहुत अधिक कीमत अदा करने के लिए तैयार नहीं होते, जबकि एक अखबार को तैयार करने में 20  से 35 रुपये की लागत आती है। भारत में इसकी पूर्ति सुबह-सुबह आपको जूते से लेकर अधनंगी तस्वीर तक जो कुछ भी परोसा जाता है, उससे ही होती है। सनसनी को विकास के समाचारों के उपर तरजीह देने की मजबूरी होती है। बेमन से यह मानना होता है कि मालिकों की यही मर्जी है। आपकी अग्रज पीढ़ी ने सार्वजनिक वाचनालय जैसी संस्थाएं बनाई थी, उनका लोप हो गया है। सरकार भी “वाचनालय” की जगह “संडास” खोलने के अभियान चलाती है।

मालिकों, आप के लिए यह जानना जरूरी है कि हम पत्रकार आपके लिए कितनी कठिन परिस्थितियों में अपने काम को अंजाम देते हैं। पिछले दिनों एक व्हाट्सएप मैसेज वायरल हुआ- पहले अखबार छप के बिका करते थे, अब बिक के छपा करते हैं। यकीन मानिये इस खरीद –फरोख्त में  आम पत्रकार से लेकर सम्पादक तक के हाथ उजले हैं। प्रबंध के पदनामों में छिपे हाथ इस जुर्म में खूँ-आलूदा है, जो अखबार को बौध्दिक अनुष्ठान से व्यापार में बदल चुके हैं। इस व्यापार की लपलपाती रक्तरंजित जिव्हायें 2019 के आम चुनाव और उससे पहले के विधानसभा चुनाव से, अपनी अनबुझ प्यास बुझाने को आतुर है। यह सब ही तो पत्रकारों पर दवाब बनाता है।

मालिकों, हम पत्रकार ऐसे कितने ही दबावों और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करते हैं और यह दबाव हमारी जान भी ले लेता है। हम यह चुनौती इसलिए स्वीकार करते हैं, ताकि आप तक निष्पक्ष और सटीक खबरें पहुंच सकें। हमारे काम करने के घंटे निर्धारित नहीं होते। हम कभी सुबह नौ से शाम पांच बजे तक की सुकून भरी नौकरी नहीं कर पाते। आपको मालूम ही होगा, खबरें  जुटाने का काम दिन भर चलता है और फिर अखबार को तैयार करने का काम देर शाम शुरू होकर आधी रात तक चलता है। जब आप सो रहे होते हैं, तब हम पत्रकार आपके लिए अखबार/ रेडियो, टीवी या किसी न्यूज चैनल पर खबर तैयार कर रहे होते हैं। आपको हर समय खबर चाहिए और वो भी  ताजातरीन। आप मालिक हैं, खड़े होईये, अपने कारकूनों के साथ।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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