जरूर पढ़ें: प्रणब मुखर्जी और मोहन भागवत के भाषण के प्रमुख अंश व अर्थ

नागपुर। पूर्व राष्ट्रपति और 43 साल तक कांग्रेस के सर्वमान्य नेता रहे प्रणब मुखर्जी गुरुवार को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दीक्षांत समारोह में शामिल हुए। यह कार्यक्रम इसलिए एतिहासिक नहीं था कि प्रणब मुखर्जी इसे संबोधित करने आए लेकिन इसलिए एतिहासिक है कि इस कार्यक्रम के माध्यम से संघ की पहचान बदलने की कोशिश की गई। कट्टरवाद से सहिष्णुता की ओर। अपने संबोधन में प्रणब मुखर्जी ने सुझाव दिए और मोहन भागवत ने संघ के नए स्वरूप के संकेत दिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ अब धर्म, जाति और विचारधारा के दायरों में सीमित नहींं रहेगा। 

समर्पण और आदर का नाम है राष्ट्रीयता: प्रणब मुखर्जी

प्रणब मुखर्जी ने कहा, ‘‘मैं आज यहां देश, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की अवधारणा के बारे में अपनी बात साझा करने आया हूं। इन तीनों को आपस में अलग-अलग रूप में देखना मुश्किल है। देश यानी एक बड़ा समूह जो एक क्षेत्र में समान भाषाओं और संस्कृति को साझा करता है। राष्ट्रीयता देश के प्रति समर्पण और आदर का नाम है। भारत खुला समाज है। भारत सिल्क रूट से जुड़ा हुआ था। हमने संस्कृति, आस्था, आविष्कारों और महान व्यक्तियों की विचारधारा को साझा किया है। बौद्ध धर्म पर हिंदुओं का प्रभाव रहा है। यह भारत, मध्य एशिया, चीन तक फैला। मैगस्थनीज आए, हुआन सांग भारत आए। इनके जैसे यात्रियों ने भारत को प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था, सुनियोजित बुनियादी ढांचे और व्यवस्थित शहरों वाला देश बताया।
इस तरह से उन्होंने भारत के महान इतिहास और संस्कृति की याद दिलाई। 

2500 साल तक व्यवस्थाएं बदलीं लेकिन राष्ट्रवाद कायम रहा

यूरोप के मुकाबले भारत में राष्ट्रवाद का फलसफा वसुधैव कुटुंबकम से आया है। हम सभी को परिवार के रूप में देखते हैं। हमारी राष्ट्रीय पहचान जुड़ाव से उपजी है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाजनपदों के नायक चंद्रगुप्त मौर्य थे। मौर्य के बाद भारत छोटे-छोटे शासनों में बंट गया। 550 ईसवीं तक गुप्तों का शासन खत्म हाे गया। कई सौ सालों बाद दिल्ली में मुस्लिम शासक आए। बाद में इस देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतकर राज किया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रशासन का संघीय ढांचा बनाया। 1774 में गवर्नर जनरल का शासन आया। 2500 साल तक बदलती रही राजनीतिक स्थितियों के बाद भी मूल भाव बरकरार रखा। हर योद्धा ने यहां की एकता को अपनाया। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था- कोई नहीं जानता कि दुनियाभर से भारत में कहां-कहां से लोग आए और यहां आकर भारत नाम की व्यक्तिगत आत्मा में तब्दील हो गए।
इस तरह से उन्होंने बताया कि भारत में कभी भी कट्टरवाद स्थाई नहीं रहा। 

घृणा और असहिष्णुता राष्ट्रवाद को धुंधला कर देगी

1895 में कांग्रेस के सुरेंद्रनाथ बैनर्जी ने अपने भाषण में राष्ट्रवाद का जिक्र किया था। महान देशभक्त बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा। हमारी राष्ट्रीयता को रूढ़वादिता, धर्म, क्षेत्र, घृणा और असहिष्णुता के तौर पर परिभाषित करने का किसी भी तरह का प्रयास हमारी पहचान को धुंधला कर देगा।
इस तरह उन्होंने बताया कि कट्टवाद देश को नुक्सान पहुंचाता है और ऐसे लोग देशभक्त नहीं हो सकते। 

मोहन भागवत ने 'हिंदू' को 'भारत पुत्र' से रिप्लेस किया

मोहन भागवत ने कहा, ''प्रणब जी से हम परिचित हुए। सारा देश पहले से ही जानता है। अत्यंत ज्ञान और अनुभव समृद्ध आदरणीय व्यक्तित्व हमारे साथ है। हमने सहज रूप से उन्हें आमंत्रण दिया है। उनको कैसे बुलाया और वे क्यों जा रहे हैं। ये चर्चा बहुत है। हिंदू समाज में एक अलग प्रभावी संगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं है। संघ सम्पूर्ण समाज को खड़ा करने के लिए है। विविधता में एकता हजारों वर्षों से परंपरा रही है। हम यहां पैदा हुए इसलिए भारतवासी नहीं हैं। ये केवल नागरिकता की बात नहीं है। भारत की धरती पर जन्मा हर व्यक्ति भारत पुत्र है। 
इस तरह मोहन भागवत ने मोहन भागवत ने 'हिंदू' को 'भारत पुत्र' से रिप्लेस कर दिया। इससे पहले तो भागवत कहा करते थे कि यहां जन्मा हर व्यक्ति हिंदू है। 

सारे विचारों के सम्मान का पाठ पढ़ाया

हमारी इसी संस्कृति के अनुसार इस देश में जीवन बने। सारे भेद-स्वार्थ मिटाकर सुख-शांति पूर्ण संतुलित जीवन देने वाला प्राकृतिक धर्म राष्ट्र को दिया जाए ऐसा करने में अनेक महापुरुषों ने अपनी बलि भी दे दी। किसी राष्ट्र का भाग्य बनाने वाले व्यक्ति, विचार, सरकारें नहीं होते। सरकारें बहुत कुछ कर सकती हैं, लेकिन सबकुछ नहीं कर सकती हैं। देश का समाज अपने भेद मिटाकर, स्वार्थ को तिलांजलि देकर देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होता है तो सारे नेता, सारे विचार समूह उस अभियान का हिस्सा बनते हैं और तब देश बदलता है।
इस तरह मोहन भागवत ने अपने प्रचारकों को एक नया पाठ पढ़ाया। सारे विचारों के सम्मान का पाठ। 

कांग्रेस से डॉ. हेडगेवार के मधुर रिश्तों को याद किया

आजादी से पहले सभी विचारधाराओं वाले महापुरुषों की चिंता थी कि हमारे विचार से कुछ भला होगा, लेकिन सदा के लिए बीमारी नहीं खत्म होगी। डॉ. हेडगेवार सभी कार्यों में सक्रिय कार्यकर्ता थे। उनको अपने लिए करने की कोई इच्छा नहीं थी। वे सब कार्यों में रहे। कांग्रेस के आंदोलन में दो बार जेल गए, उसके कार्यकर्ता भी रहे। समाजसुधार के काम में सुधारकों के साथ रहे। धर्म संस्कृति के संरक्षण में संतों के साथ रहे। हेडगेवार जी ने 1911 में सोचना शुरू किया। उन्होंने विजयादशमी के मौके पर 17 लोगों को साथ लेकर कहा कि हिंदू समाज उत्तरदायी समाज है। हिंदू समाज को संगठित करने के लिए संघ का काम आज शुरू हुआ है। ये जो हमारी दृष्टि है, हमसब एक हैं। किसी किसी को एकदम समझ आता है, किसी को समझ में नहीं आता है। किसी को मालूम होते हुए भी वो उल्टा चलते हैं। किसी को तो मालूम भी नहीं है।''

वातावरण बनाने वाले लोग चाहिए

भारत में दुश्मन कोई नहीं है। सबकी माता भारत माता है। 40 हजार साल से सबके पूर्वज समान हैं। सबके जीवन के ऊपर भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं। इस सत्य को संकुचित भेद छोड़कर स्वीकार कर लें। भारतीयता के सनातन प्रवाह को स्वीकार करते जाएं। संघ को समाज में नहीं, समाज का संगठन करना है। संघ लोकतांत्रिक है। इसी व्यवहार से स्वभाव बनता है। समाज का हर व्यक्ति अध्ययन और विचार करके नहीं चलता। वो उस वातावरण के हिसाब से चलता है, जो बनता है। वातावरण बनाने वाले लोग चाहिए। तात्विक चर्चा हमारा समाज नहीं करता। तत्व की चर्चा करने जाएंगे तो विषयों को लेकर मतभेद होगा। हर ऋषि अलग-अलग बात बताता है। अनुयाई वैसे ही चलते हैं।
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