
इस विस्थापन के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों में सशक्त आवाजें उठीं। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी, भवानी दयाल संन्यासी इत्यादि के प्रतिरोध से उन मुल्कों में श्रमिकों की स्थिति के अध्ययन के लिए अनेक आयोग बनाए गए। इन आयोगों की रिपोर्ट के आधार पर १९१६-१७ में गिरमिटिया विस्थापन को रोकने के लिए ब्रितानिया सरकार बाध्य हुई। अभी पूरी दुनिया में जिन देशों में भी इन गिरमिटिया के वंशज हैं, वे ‘गिरमिटिया’ व्यवस्था की समाप्ति की १०० वीं वर्षगांठ मना रहे हैं।
आज उन विस्थापित लोगों की तीसरी या चौथी पीढ़ी शिक्षा, राजनीति या व्यापार में बहुत आगे आ चुकी है। अनेक अपनी जड़ों से जुड़ने, उन्हें खोजने के लिए भारत आ रहे हैं। उनकी अस्मिता को अगर गहराई से महसूस करें, तो आज सब कुछ होने के बावजूद वे अपने को आधा-अधूरा महसूस करते हैं। मानो उनका ‘आधा’ आज भी कहीं खोया हो, जिसे वे ढूंढ़ रहे हों। वे एक ऐसी नॉस्टालजिया की यातना से गुजर रहे हैं, जिसमें मातृभूमि में वापसी असंभव है, पर सदा उसकी चाहत उसमें बनी रहती है। उनके जो पूर्वज भारत में अपने परिवार से विलग हो गए थे, उनमें से ज्यादातर उस विलगाव के दुख से जिंदगी भर उबर नहीं पाए और उनमें से अनेक मानसिक बीमारियों के शिकार हो गए। अगर आप उन देशों के आर्काइव में जाएं, तो वहां ऐसे खोये पत्रों का अलग बॉक्स बना है। उन संदेशों का, जो जिन लोगों के लिए लिखे गए थे, उन तक कभी पहुंच ही नहीं पाए। ये ही संदेश इस तरह की खोज के मूल में हैं।
ये ही लोग अब भारत में अपने लोगों से जुड़ रहे हैं। शादी-ब्याह का संबंध भी स्थापित कर रहे हैं। भारत सरकार प्रवासी दिवसों का आयोजन करके इन्हें जोड़ रही है। भारत के ग्रामांचलों की लोक-संस्कृति में इन बिदेसिया की स्मृतियां आज भी लोक गीतों में जिंदा हैं। हिंदी और अंग्रेजी में इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अपनी जड़े खोजते इन लोगों को सिर्फ अपनत्व की तलाश है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।