
अनेक संशोधनों के बाद आज भी भारतीय संविधान एक ऐसी नीति सामने रखता है जो नागरिकों पर केंद्रित है और जहां राज्य व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा की गारंटी देता है। इस मोड़ पर संविधान की इस मूल भावना को याद रखना श्रेयस्कर है क्योंकि समुदाय या समूह आधारित अराजक और संकीर्ण पात्रताओं का दौर देखने को मिल रहा है। अगर यह स्थिति स्थायी हो गई तो व्यक्तिगत अधिकारों की सर्वोच्चता का क्या होगा ? जोकि संविधान की प्रमुख खासियत है। हमारी समसामयिक चुनौतियों से निपटने में संविधान की मूल भावना इस कदर अहमियत क्यों रखती है? संविधान तैयार करने वालों ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जहां हर नागरिक अपनी पूरी क्षमता विकसित कर सके और जाति, धर्म आदि से परे श्रेष्ठता हासिल कर सके। अगर देश इस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है तभी हम लोगों की रचनात्मक ऊर्जा का फायदा उठा पाएंगे और व्यापक गरीबी, बीमारियों और सामाजिक आर्थिक असमानता को दूर कर पाएंगे।
आज कई कठिन और जटिल मुद्दे हैं जिनका सामना हमारे देश को करना पड़ रहा है। इन मुद्दों से भी हमें शिक्षित और सूचित बहस के माध्यम से निपटना होगा। यह बहस सदन के भीतर भी हो सकती है और बाहर भी। इसके विपरीत इन मुद्दों का निर्धारण आज विभिन्न जनसमूहों की भावनाओं के आधार पर हो रहा है। इन समूहों के अपने पूर्वग्रह हैं। अगर इसका प्रतिरोध नहीं किया गया तो असहमति और दलीलों की गुंजाइश सीमित होती जाएगी। आज अधिकांश बहस और असहमति ऐसी ही बातों को लेकर उपजती है। इन दिनों ऐसे विरोधाभासी संदर्भों की बाढ़ आई हुई है। हमें प्राय: उनका साक्षी बनना होता है। अगर हम इस खतरनाक रुझान को झेलते रहे तो सवाल यह है कि राष्ट्रीयता की भावना कैसे पनपेगी?
चुनावी गुणा भाग राजनेताओं को संकीर्णता भरी बातों के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसका लाभ भी उन्हें मिलता है, परंतु देश और नागरिकों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। देश में नागरिक समानता हमारे संविधान के मूल सिद्घांतों में से एक है। यही समय है जब राजनीतिक दलों में इस बात पर सहमति बनानी चाहिए कि संविधान में उल्लिखित समान नागरिकों वाले जागृत समाज के प्रति प्रतिबद्घता प्रगट करने के ठोस काम कैसे हों ? वरन हमे गंभीर संकट का सामना करना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।