
बैसे भी सरकारी बैंकों पर यह आरोप लगते रहे हैं कि राजनीतिक दबावों में उन्होंने कई उद्यमियों को पहले कर्ज दिए थे। विजय माल्या को दिए गए सरकारी बैंकों द्वारा कर्ज ऐसे ही कर्ज माने गएहैं, पर देखने वाली बात यह है कि सिर्फ रुपयों से, या सिर्फ पूंजी से ही कारोबार नहीं चलते। प्रबंध कौशल में कमी के बिना बड़ी सी बड़ी पूंजी डूब जाती है। जैसे सरकारी संगठन एयर इंडिया लगातार पूंजी डुबो ही रहा है। इसके विपरीत उड्डयन बाजार में निजी क्षेत्र की कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं, जबरदस्त आधारभूत ढांचे के बावजूद एयर इंडिया में रकम डूब रही है। यह एक सर्व मानी तथ्य है रकम से ही समस्याओं का समाधान नहीं होता है। ऐसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जो नई रकम सरकारी बैंकों में जाएगी, उसका सही इस्तेमाल हो। उसका प्रयोग उत्पादनशीलता को बढाये।
सर्व ज्ञात है कि सरकारी बैंकों को मिले नये संसाधन मूलत करदेयक की रकम ही होती है। सरकार इस रकम का कुछ और बेहतर इस्तेमाल भी कर सकती थी, इससे कुछ नये पुल, कुछ नई सड़कें, कुछ और रोजगार योजनाएं चलाई जा सकती थीं। इसके विपरीत सरकार ने इस रकम को बैंकों को दिया। तो बैंकों का यह दायित्व बनता है कि वे भी ठोस परिणाम दिखाएं। ठोस परिणाम ये हो सकते हैं कि कुछ ऐसे कारोबारियों को कर्ज दिया जाए, जो लाभ कमा रहे हों और , जिनसे वसूली आसान हो।
सरकारी बैंक अपनी शाखाओं का, कारोबार का प्रबंधन इस प्रकार से करें कि मुनाफा कमाते हुए ग्राहकों को श्रेष्ठ सेवा देना पाना संभव हो। ठोस परिणाम यह हो सकते हैं कि सरकारी बैंक निजी क्षेत्र के बैंकों का विश्लेषण करें कि सुस्त अर्थव्यवस्था में भी निजी बैंक लगातार अपना कारोबार और मुनाफा कैसे बढ़ा रहे हैं। अतिरिक्त पूंजी से सरकारी बैंकों में कुछ समय के लिए चमक आ सकती है, पर स्थाई चमक के लिए उन्हें पूंजी के अलावा चुस्त प्रबंध कौशल की व्यवस्था। भी करना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।