“पार्टी विथ डिफ़रेंस” और ये चुप्पी

राकेश दुबे@प्रतिदिन। अपने को “पार्टी विथ डिफ़रेंस” कहने में गर्व महसूस करने वाली भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र हमेशा गर्व का विषय रहा है। पार्टी हमेशा कहती रही है कि यह वह बात है जो उसे कांग्रेस से अलग करती है क्योंकि कांग्रेस में परिवारवाद ने लोकतंत्र के तमाम निशान मिटा दिए हैं। आज  भाजपा मार्गदर्शक मंडल के सदस्य यशवंत सिन्हा के जवाब में पार्टी के वरिष्ठ नेता चुप हैं और कई पार्टी नेता डर के मारे बोल नहीं रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपेक्षा की जा रही है कि वे इस आलोचना का जवाब दें, पर सब चुप हैं।

इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सिन्हा के इस हमले की जद में प्रधानमंत्री हैं। अरुण जेटली को लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद देश का वित्त मंत्री बनाने को लेकर सिन्हा ज्यादा हमलावर हैं। जेटली पर उनके आक्रमक होने का एक अन्य कारण सिन्हा देश की अर्थव्यवस्था की इस कदर दुर्दशा को भी मानते है। सिन्हा मोदी पर भी यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने मंत्रिमंडल चयन के उस सिद्घांत का परित्याग कर दिया जिसके तहत मंत्रियों को उन नेताओं में से ही चुनना था जो लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहे। 

हो सकता है मोदी, जेटली को चुनने के अपने निर्णय का बचाव कर लें, क्योंकि सिन्हा के अलावा अन्य कोई वरिष्ठ भाजपा नेता ऐसा नहीं है जिसने प्रधानमंत्री के चयन पर सवाल खड़ा किया हो। सिन्हा ऐसा करने वाले पहले नेता हैं और इससे एक ऐसा चलन चल सकता है जो भाजपा नेतृत्व के लिए मुसीबत हो सकता है और वो 2019 के आम चुनाव की तैयारी में विघ्न पैदा कर सकता है। 

पार्टी न जाने क्यों आश्वस्त है कि सिन्हा का हमला पार्टी के लिए उतना चुनौतीपूर्ण नहीं होगा और राजनीति पर या सत्ताधारी दल की चुनावी संभावनाओं पर इसका बहुत बुरा असर नहीं होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि धीमी वृद्घि दर अभी भी देश में चुनाव जीतने का प्रभावी मुद्दा नहीं बन सकती। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के क्रियान्वयन में जो गड़बडिय़ां हुईं उन्होंने अवश्य बाजार में निराशा ही उत्पन्न की है। किसी भी बदलाव के वक्त ये समस्याएं आती हैं और इनसे अगले छह माह से एक वर्ष के भीतर निपटा जा सकता है। 

सही मायने में भाजपा नेतृत्व को ज्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि इससे मुद्रास्फीति में तेजी आ रही है और सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप तैरने लगे हैं। यह सच है कि अब तक मुद्रास्फीति चिंता की वजह नहीं बन सकी है लेकिन अगर कच्चे तेल की कीमतें मजबूत बनी रहीं या और बढ़ीं तो खतरा मंडराना शुरू हो जाएगा। यह सब सरकार की चुनावी संभावनाओं के लिए बुरा साबित हो सकता है। खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई भी आम लोगों में निराशा की वजह बन सकती है। ये बातें चुनाव में सत्ताधारी दल के खिलाफ जा सकती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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