श्राद्ध से पितृगण पुष्ट होते हैं उन्हें नीच योनियों से मुक्ति मिलती है

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को हमारे हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है। इसे महालय और पितृ पक्ष भी कहते हैं। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है। श्राद्ध पक्ष इस वर्ष 15 दिन के होंगे। कुछ पंडित बीच में पंचमी तिथि का क्षय होना भी बता रहे हैं। इस तरह पितृ पक्ष का पूरा एक दिन घटने से श्राद्ध के पूरे 16 दिन नहीं होंगे। तिथि घटने से पितृ पक्ष का एक दिन कम हो गया है। इस बार श्राद्ध 6 सितंबर, बुधवार से से शुरू होंगे। इसी दिन दोपहर में प्रतिपदा का श्राद्ध भी होगा। 15 दिन बाद 20 सितंबर, बुधवार को सर्व पितृ अमावस्या पर श्राद्ध का समापन होगा।

हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है।

पुराणों के अनुसार मुताबिक मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध पक्ष में मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है। ज्यादातर लोग अपने घरों में ही तर्पण करते हैं।

श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत प्राणी का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस रिवाज को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।

श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। श्राद्ध का समय दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। यात्रा में जा रहे व्यक्ति, रोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने की छूट दी गई है। कुछ लोग कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं। कहते हैं कि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं और गाय वैतरणी पार कराने में सहायक है।

श्राद्ध के संदर्भ में एक कथा यहां उल्लेखनीय है कि धर्मराज युधिष्ठिर भीष्म से पश्न करते हैं कि जब व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार अलग अलग योनि में जन्म लेते हैं तब श्राद्ध की क्या आवश्यकता है. इस पर भीष्म अपना अनुभव सुनाते हैं कि यह कर्म किस प्रकार आवश्यक और फलदायक है. भीष्म कहते है एक बार जब मैं अपने पिता का श्राद्ध कर रहा था उस वक्त मेरे पिता मेरे सम्मुख आये और उन्होंने हाथ बढ़ाकर कहा कि हे पुत्र पिण्ड मेरे हाथ पर रख दो. मैं अपने पिता का हाथ और उनकी वाणी पहचान गया  लेकिन शास्त्र का आचरण करते हुए मैंने पिण्ड कुश पर रख दिया जिससे पिता ने मुझे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया.

ब्रह्मपुराण में और गरू़ड़ पुराण में श्राद्ध कर्म पर काफी विस्तार से बताया गया है. इनके अनुसार पितर चाहे किसी भी योनि में हों परंतु पुत्रों एवं पत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश स्वीकार करते हैं इससे पितृगण पुष्ट होते हैं और उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है. यह कर्म कुल के लिए कल्याणकारी है.

श्राद्ध के संदर्भ में गया में पिण्डदान का काफी माहत्मय है. मान्यता है कि अगर आपको अपने पितृगणों की पुण्य तिथि नहीं पता है व आपको यह लगता है कि आप अपने पितृगणों का श्राद्ध हर वर्ष कर पाने में सक्षम नहीं है तो अपने पितरों को आमंत्रित कर कहें कि हे पितृगण मैं आपके लिए गया में पिण्डदान के लिए जा रहा हूं आप मेरे साथ चलें और मेरे द्वारा दिया गया पिण्ड ग्रहण कर हमें मुक्ति दें. इस तरह से जब आप गया पहुंचकर पिण्डदान देंगे उसके पश्चात पितृगण के कर्तव्य से आप मुक्त हो जाते हैं.
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