
बम्बई से मुम्बई कलकत्ता से कोलकाता और मद्रास से चैन्नई होने से इन नगरों की या उड़ीसा से ओड़िसा होने से उस राज्य की तासीर, तवारीख और रिवायत नहीं बदली। सब कुछ ज्यों-का-त्यों ही है। नाम बदलने से भयभीत लोगों के भय दूर करने में यह तर्क काम कर सकता है, परन्तु जहाँ मामला इतिहास, रिवायत और स्थान की मूल आत्मा को समाप्त करती हो, वहां हमे पूर्ववर्ती नामों के चलन की रक्षा और उस नाम को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए।
भारत में सप्तसिंधु, सप्तनदी, सप्तनगरी और सप्तसरोवरों का धार्मिक और भौगोलिक महत्व है।दुर्भाग्य से इन पर ही सबसे ज्यादा प्रहार हुए हैं। सप्तनदियों में प्रदूषण ने घर कर लिया है और सप्तनगरियों में फैलते सीमेंट कंक्रीट के जंगलों ने उनके ऐतिहासिक नामों के साथ अपभ्रंश जोड़ मूल भावनाओं को ही नष्ट कर दिया है और करने की तैयारी चल रही है। भारत की सप्तनगरियों की पहचान संस्कृत के इस श्लोक से होती है :-
'अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका, पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः
पुराणों के अनुसार ये मोक्षदायक नगर है।
यूँ तो इनमे से कोई नगरी दूसरे कम नहीं है, पर इनमे सबसे ज्यादा अत्याचार “काशी” के साथ हुआ। काशी से वाराणसी और वाराणसी से बनारस की नाम परिवर्तन यात्रा कभी मुगलों से तो कभी ठीक उच्चारण न कर पाने वाले विलायती बाबुओं के कारण हुई। दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने वाली काशी का दुर्भाग्य है कि उसके प्राचीन नाम को पुनर्स्थापित करने की किसी को फुर्सत नहीं है। कुछ दूर बसे मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलने पर जोर है।
मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही कुछ हुआ है और होने जा रहा है। अवन्तिका, अब उज्जैन के नाम से पहचानी जाती है। संस्कृत ग्रन्थ प्रमाणस्वरूप उपलब्ध है, उसे छोड़ भोपाल को भोजपाल करने की मुहिम सर उठाती रहती है। भोजपाल, भूपाल या भोपाल या अन्य किसी भी नगर का इतिहास किसी भी नाम के पक्ष में हों, बदलने से पहले, उसके मूल संस्कारों का संरक्षण जरूरी है।
वैसे किसी भी स्थान का नाम बदलने के पूर्व शेक्सपियर की यह बात याद रखना चाहिए। “तुम मुझसे मोहब्बत करो या नफरत दोनों मेरे पक्ष में ही है। गर तुम मुझसे मोहब्बत करते हो तो मैं तुम्हारे दिल में हूं, और गर नफरत करते हो तो मैं तुम्हारे दिमाग में हूं।” सारे शहर उनके वाशिंदे यही कहते हैं, गौर से सुनिए।