उपदेश अवस्थी/शैलेन्द्र गुप्ता/भोपाल। हाईकमान के लिए गुजरात के अलावा मप्र प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। हलचल साफ दिखाई दे रही है। सितारे जमीन पर उतर आए हैं। किसानों के घर जा रहे हैं। आंसुओं में हिस्सेदारी हो रही है लेकिन हाईकमान जानता है कि इतने भर से काम नहीं बनने वाला। जब तक मप्र की तिकड़ी एकजुट नहीं हो जाती तब तक भाजपा और शिवराज सिंह को चुनौती नहीं दी जा सकती। बस इसी तिकड़ी को आर्गनाइज्ड करने का फार्मूला तलाशा जा रहा है और इसी के कारण अब तक मप्र में कांग्रेस का चैहरा घोषित नहीं किया गया है।
मप्र में कांग्रेस के हितचिंतकों के लिए शुभ संकेत यह है कि दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया तीनों ही एक्टिव मोड में आ गए हैं। अब तक केवल मीडिया ही वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस को प्राणवायु दे रही थी परंतु अब जमीन पर कांग्रेस दिखाई देने लगी है। किसान आंदोलन में जिस तरह का प्रदर्शन दिग्गजों ने किया, 13 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा देखने को मिला लेकिन इतने भर से काम नहीं बनने वाला। यह केवल शुरूआत है। इसमें काफी सुधार की जरूरत है।
सिंधिया में है शिवराज को चुनौती देने का दम
इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस के अलावा राजनीति से जुड़े कई दूसरे लोग भी सिंधिया में बदलाव देखकर उम्मीद जता रहे हैं। उन्हे लगता है कि सिंधिया में वो बात है जो शिवराज सिंह को चुनौती दे सकती है। सिंधिया जहां भी जाते हैं कार्यकर्ताओं के अलावा आम आदमी को भी प्रभावित कर पाते हैं। यह खूबी कमलनाथ में नहीं है। दिग्विजय सिंह इस कला के माहिर खिलाड़ी हैं लेकिन मप्र में जनता उन्हे सुनना ही नहीं चाहती। भाजपा ने लोगों को उनके नाम से इतना डरा दिया है कि दिग्विजय सिंह का नाम सुनते ही लोग भाजपा को वोट दे डालते हैं।
फंड जुटाने में माहिर हैं कमलनाथ
सब जानते हैं कि मप्र में कांग्रेस कड़की के दिनों से गुजर रही है। प्रदेश कार्यालय की ओर से कर्मचारियों को नियमित चाय तक में कटौती कर दी गई है। छोटे छोटे खर्चों के लिए देर तक विचार करना पड़ता है। कांग्रेस के भीतर तक बैठे लोग बेहतर जानते हैं कि दिल्ली में बैठा खजांची बजट अप्रूव कराने में इतनी देरी कर देता है कि सारा गुड़ ही गोबर हो जाता है। पिछले 13 सालों में हुए कुछ चुनाव तो कांग्रेस केवल इसलिए ही हार गई क्योंकि मोती लाल नहीं हुए, पीले ही रह गए। कमलनाथ इस समस्या का सरल समाधान हैं। वो खुद कारोबारी हैं। उनके कहने पर कांग्रेस को बड़ा फंड मिल सकता है। वो खुद बार बार दोहरा रहे हैं कि इस मामले में वो आगे बढ़कर मदद करेंगे। अत: मप्र में कांग्रेस की जीत के लिए कमलनाथ भी अनिवार्य है।
दिग्गी के बिना कांग्रेस में दम नहीं आ सकती
मप्र में कांग्रेस के लिए यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया ऊर्जा हैं तो कमलनाथ पेटपूजा लेकिन ताकत तो दिग्विजय सिंह के शामिल होने के बाद ही आ सकती है। मप्र में ग्राम पंचायत स्तर तक यदि किसी नेता का संपर्क है तो केवल और केवल दिग्विजय सिंह है। दिग्गी फुलटाइमर राजनेता हैं जबकि कमलनाथ वरिष्ठ होने के बावजूद पार्टटाइम पॉलिटिक्स करते रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया तो हॉली-डे पॉलिटिक्स के लिए जाने जाते रहे हैं। जेएम की लाइफ में शायद पहली बार हआ है जब वो अपनी विदेश यात्रा अधूरी छोड़कर किसान आंदोलन में शामिल होने आए। इसलिए दिग्विजय सिंह अनिवार्य हैं। वही अकेले हैं जो कार्यकर्ताओं को एकजुट कर सकते हैं। पूरा चुनाव मैनेज कर सकते हैं। ट्वीटर पर भले ही वो अठखेलियां करते रहते हों परंतु उनके अनुभव और गंभीर चुनावी चालों को विरोधी भी नकार नहीं सकते। इतिहास गवाह है दिग्विजय सिंह कभी अपने लिए नहीं लड़े लेकिन अपनों के लिए उन्होंने बहुत पंगे लिए हैं। सिंधिया ने दिग्गी अंकल का अक्सर सम्मान किया लेकिन जब जब बंटवारे की बात आई अपनों के लिए दोनों में तलवारें खिंच गईं।
हाईकमान की चिंता क्या है
चिंता की बात केवल इतनी सी है कि ये तीनों दिग्गज कभी एकराय नहीं होते। छोटे छोटे मामलों में इनकी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है। गांव के पंच सरपंचों की तरह ये एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हैं। कुछ मौकापरस्त छर्रों ने पूरी बैरिंग खराब कर रखी है। आरआरजी को अब केवल उस एक फार्मूले की तलाश है जिसके चलते तीनों का अहंकार शांत हो जाए और तीनों पूरी ईमानदारी के साथ मप्र के काम में जुट जाएं। देखते हैं लोग जिसे 'पप्पू' बुलाते हैं, उनके पास इस धर्मसंकट का कोई तोड़ मिलता है क्या।