
हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान का नारा बहुत पुराना है। इसका मूल मंतव्य यह था कि हिन्दी देश की भाषा है, या बने और हिन्दू का मतलब सात्विक जीवन पद्धति से था और हिन्दुस्तान से सभी लोगों को समान अधिकार प्राप्त करने से लेकिन आजादी के बाद भाषायी तुष्टीकरण की नीति को हमारे ही जनप्रतिनिधियों ने हवा दी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भौगोलिक रूप से तो भारत को एक सूत्र में बांध दिया लेकिन भाषायी एकता की आज भी दरकार है। व्यक्तिगत रूप से जब भी हिन्दी की महत्ता बढ़ती दिखती है। शायद भारतेन्दु हरिशचंद्र ने हिन्दी की इसी दुर्दशा को महसूस करते हुए कहा था : ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल. बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल..।
देश में करोड़ों लोग जो ग्रामीण परिवेश से आते हैं। जब भी कोई प्रसंग उनके सामने अंग्रेजी में आता है, तो सबसे पहले उसे हिन्दी या अपनी मातृभाषा में समझने का प्रयास करते हैं, क्योंकि हमारे सोचने की जो क्षमता है, वो हमारी अपनी मातृभाषा में ही होती है। प्रसिद्ध पत्रकार मार्क टुली ने अपने एक लेख में हिन्दी को लेकर भारत की विडम्बना का उल्लेख किया है, जिसमें वो लिखते हैं कि एक देश के लिए इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि उसकी जड़ों को गहराई से समझने वाले लोग उसकी अभिव्यक्ति को अंग्रेजी में नहीं रख पाते और जो लोग हिन्दुस्तान को नहीं समझते वो उसकी बात बाहर के मंचों पर अंग्रेजी में पूरी दुनिया में रखते हैं।शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने किसी भी देश के विकास में उसकी मातृभाषा की भूमिका को बेहद अहम माना था। उन्होंने किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पांच बिंदुओं को रेखांकित किया था। पहला, सरकारी अधिकारी उसे आसानी से सीख सकें। दूसरा, समस्त भारत में धार्मिंक और राजनीतिक प्रयोग के लिए पूरी तरह सक्षम हों। तीसरा, अधिकांश भारतवासियों द्वारा बोली जाती हो। चौथा, सारे देश को इसे सीखने में आसानी हो। तथा पांचवां, राष्ट्र भाषा के चुनाव के समय किसी वर्ग विशेष के क्षणिक हितों पर ध्यान न दिया जाए। उपरोक्त सभी बिंदुओं पर वह हिन्दी को खरा मानते थे.महात्मा गांधी। उनसे सहमत राजनेताओं के प्रयासों का ही प्रतिफल था कि संविधान सभा ने हिन्दी को 24 सितम्बर, 1949 को राजभाषा का दर्जा दिया और 26 जनवरी, 1950 को जब संविधान लागू हुआ तब से देवनागरी लिखित हिन्दी देश की राजभाषा बन किसी देश के राष्ट्रीय प्रतीकों मसलन राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान आदि की जो महत्ता होती है, उतनी ही महत्ता उसकी राजभाषा की भी होती है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में भाषा जनता और उसके शासक के बीच में अवरोध के रूप में नहीं होनी चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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