राकेश दुबे@प्रतिदिन। रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने स्ट्रैटिजिक पार्टनरशिप पॉलिसी को मंजूरी देकर एक बड़ा काम किया है। इस नीति के तहत प्राइवेट सेक्टर की चुनी हुई कंपनियां विदेशों की चुनिंदा कंपनियों के साथ मिलकर सेना की जरूरतों के मुताबिक सैन्य सामानों का उत्पादन देश के अंदर ही करेंगी। इस पहल पर काम पिछले 18 महीनों से अटका था क्योंकि सरकार के आला अफसरों में कुछ अहम बिंदुओं पर सहमति नहीं बन पा रही थी। आखिरकार रक्षा मंत्री के दखल से असहमतियां दूर हुईं और रक्षा मंत्रालय ने इस नीति को मंजूरी दे दी।इस बहुप्रतीक्षित फैसले ने रक्षा उद्ध्योग को उत्साहित कर दिया है। देश की कुछ नामी कंपनियां छह कंपनियों की उस सूची में जगह बनाने के प्रयास में लग गई हैं, जिसे रक्षा मंत्रालय तैयार करने वाला है। इन कंपनियों को इस दीर्घकालिक परियोजना में सहभागी बनाया जाएगा। जितने बड़े स्तर का यह प्रॉजेक्ट है, उसे देखते हुए यह होड़ स्वाभाविक है। 20 अरब डॉलर के सौदे तो अगले ही साल के लिए प्रस्तावित हैं।
गौरतलब है कि भारत अभी रक्षा सामानों के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा आयातक देश है। हाल के बरसों में इसमें असाधारण तेजी आई है। २००७-११ में भी भारत सबसे बड़ा आयातक देश रहा, पर उस दौरान विश्व के कुल हथियार आयात में उसका हिस्सा ९.७ प्रतिशत था। अगले पांच वर्षों में यानी २०१२ से २०१६ के बीच यह बढ़ कर १३ प्रतिशत पर पहुंच गया।
अब स्थिति यह है कि दूसरे नंबर का आयातक देश सऊदी अरब इसके दो तिहाई से भी नीचे, ८ प्रतिशत पर खड़ा है। जाहिर है, भारत के राजस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा सैन्य सामानों के आयात पर खर्च हो जाता है। इससे विदेशी कंपनियों को तो मोटा मुनाफा मिलता ही है, सौदा कराने वाली दलाल फर्मों की भी अच्छी कमाई होती है। लेकिन देश में न तो इससे कोई रोजगार बनता है, न ही सामाजिक विकास में इसकी कोई भूमिका होती है। पनडुब्बियां, लड़ाकू विमान, टैंक और हेलिकॉप्टर देश में बनेंगे तो एक तरफ हमारी आयात निर्भरता कम होगी, दूसरी तरफ रोजगार के मोर्चे पर फायदा होगा। इसके रास्ते में कई झंझट भी हैं, लेकिन अभी तो हमें अपना सारा ध्यान घरेलू कंपनियों को रक्षा निर्माण में उतारने पर केंद्रित करना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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