
शीर्ष अदालत राजनीति में धन बल-बाहुबल के बढ़ते दुष्प्रभावों से परिचित है। उसे भी लगता है कि आगामी पांच राज्यों के चुनावों में बहुत से ऐसे लोग चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं, जिनके विरुद्ध गंभीर आपराधिक मामलों में आरोप तय हो चुके हैं।
अगर शीर्ष अदालत आगामी चुनाव से पहले उन दागी नेताओं के चुनाव लड़ने से रोकने पर कोई फैसला सुनाती है तो चुनाव की शुचिता पुनर्स्थापित करने की दिशा में ऐतिहासिक कदम होगा। जब से भारतीय राजनीति और चुनावी राजनीति में भ्रष्टाचार, धन और बाहुबल का वर्चस्व बढ़ा है, संसद और विधान सभाओं में दागी नेताओं की तादाद भी बढ़ी है। जाति और धर्म भी राजनीति के आपराधीकरण के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं।
‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म’ (एडीआर) और ‘नेशनल इलेक्शन वॉच’ जैसे गैर सरकारी संगठनों का अध्ययन बताता है कि 15वीं लोक सभा (2009 ) की तुलना में 16वीं लोकसभा (2014) में दागी सांसदों की दर में इजाफा ही हुआ है। 2009 में जहाँ 30% दागी सांसद थे, जो 2014 में बढ़कर 34 प्रतिशत हो गए। अब तो हालत यह है कि कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिनमें दागी सांसद न हों। यह बात भी एक हद तक सच हो सकती कि कुछ नेताओं के खिलाफ दर्ज मुकदमे फर्जी होते हैं और राजनीतिक प्रतिशोध के चलते दायर किए जाते हैं। लेकिन ज्यादातर में अपराध का गठजोड़ साफ दिखता है।
शीर्ष अदालत भी चुनाव के पहले फर्जी मुकदमे दर्ज किए जाने से अनजान नहीं है। इसलिए सुनवाई के दौरान ऐसे मामलों को ध्यान में रखे जाने की बात भी कही है लेकिन राजनीति को अपराधमुक्त करने में राजनीतिक दलों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है, बिना इनके सहयोग के, शीर्ष अदालत हो या चुनाव आयोग, दो-चार कदम ही आगे बढ़ सकते हैं। क्या अपराधमुक्त राजनीतिक व्यवस्था के प्रति राजनीतिक दलों का हृदय-परिवर्तन होगा! समय-समाज की मांग तो यही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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