
हालांकि इसका तत्काल असर रेडीमेड कपड़ा उद्योग पर होगा। पूरी दुनिया का रेडीमेड कपड़ा बाजार कम श्रम लागत पर आधारित है। इसका फायदा बांग्लादेश जैसे देशों ने उठाया है, जो पिछले कुछ साल में ही इस बाजार के अगुवा बन गए हैं। दुनिया भर में इस बात की चर्चा होती है कि वहां कर्मचारी कितनी खराब स्थितियों और कितनी कम तनख्वाह पर काम करते हैं, लेकिन बाजार बांग्लादेश के कब्जे में तो जा ही चुका है। नतीजा यह है कि भारतीय रेडीमेड निर्यातक लगातार पिछड़ रहे हैं, और उन्हें स्पर्धा में आगे लाने के लिए इस तरह के कदम उठाये गये हैं।
इस फैसले के फायदे और नुकसान पर काफी चर्चा हो सकती है। फायदा गिनाने वालों का कहना है कि अब इन कारीगरों के वेतन से भविष्य निधि का अंश नहीं कटेगा, इसलिए वे ज्यादा तनख्वाह घर ले जा सकेंगे। लेकिन यह भी सच है कि यह अंश जिस तरह से उनका भविष्य सुरक्षित रखने के काम आता है, वह सिलसिला भी रुक जाएगा। और नियोक्ता को फायदा यह होगा कि उसे भविष्य निधि में अपने हिस्से का योगदान नहीं करना होगा। यह भी कहा जा रहा है कि इससे कारोबार में लगी कंपनियां कारीगरों को स्थायी कर्मचारी का दर्जा देने की ओर बढ़ेंगी। अभी तक ये कंपनियां भविष्य निधि जैसी तमाम औपचारिकताओं से बचने के लिए अपने कर्मचारियों को स्थायी दर्जा नहीं देती हैं। उन्हें दैनिक आधार पर या साप्ताहिक आधार पर नकद वेतन देकर अस्थायी की श्रेणी में रखा जाता है। नोटबंदी के बाद अब यह कर पाना कंपनियों के लिए आसान नहीं होगा। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि नकदी के संकट के कारण बाकी उद्योगों की तरह ही रेडीमेड वस्त्र उद्योग में भी बड़े पैमाने पर छंटनी हो रही है। हालांकि जिन कंपनियों के पास निर्यात के ऑर्डर हैं, वे शायद यह भी न कर पाएं।
यह जो प्रावधान रेडीमेड उद्योग के लिए शुरू हुआ है, वह आगे बढ़ेगा। २०१५ -१६ का बजट पेश करते समय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस बात के संकेत दिए थे कि सरकार 1१५ हजार रुपये मासिक से कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों की भविष्य निधि की अनिवार्यता खत्म कर सकती है। एक सोच यह भी कि इस प्रस्ताव को अब रेडीमेड कपड़ा उद्योग की परखनली में परखा जा रहा है। हालांकि इसे बड़े स्तर पर करना आसान भी नहीं होगा, कोई भी श्रमिक संगठन इसे किसी कीमत पर भी स्वीकार नहीं करेगा। विरोध की आशंका वह बड़ा कारण है, जिसके चलते कोई भी सरकार श्रम सुधार लागू नहीं कर सकी है। अक्सर यह भी कहा जाता है कि श्रम सुधार का अभाव वह बड़ा कारण है, जिसने हमें विकास की दौड़ में चीन से काफी पीछे धकेल दिया। सरकारें इसे सीधे लागू करने से हमेशा से डरती रही हैं। सेज जैसी योजनाओं के जरिये सीमित ढंग से इसकी कोशिश जरूर हुई, पर सेज योजना ही बैठ गई। अब रेडीमेड उद्योग के जरिये इसे फिर एक बार आजमाया जा रहा है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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