पढ़िए कश्मीर के भारत में विलय की कहानी और विवाद की जड़

एंड्रयू वाइटहेड/ वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक। दुनिया के सबसे ज्यादा उलझे हुए विवादों में एक की जड़ में जो विलय संधि है, वह ऐतिहासिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण है, पर देखने में निहायत ही मामूली लगती है। साल 1947 में जिस विलय संधि के आधार पर जम्मू कश्मीर की रियासत भारत का हिस्सा बन गई, उसमें महज दो पेज थे और इसे ख़ास तौर पर तैयार भी नहीं किया गया था।

उस समय पांच सौ से ज़्यादा रियासतें थीं। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के मुताबिक़, रियासतों के शासकों पर निर्भर था कि वे भारत या पाकिस्तान, किसमें अपने राज्य का विलय करते हैं। दिल्ली के गृह मंत्रालय ने एक फ़ॉर्म तैयार किया था। इसमें खाली जगह छोड़ी गई थी, जिनमें रियासतों के नाम, उनके शासकों के नाम और तारीख भरे जाने थे। कई बार यह कहा जाता है कि कश्मीर के महाराजा ने विलय संधि पर दस्तख़त नहीं किया था। यह सच नहीं है।

ये है विवाद की जड़ 
इस पर रहस्य बना हुआ है कि उन्होंने उस कागज पर अपना नाम कब डाला था, जिसके तहत उनका राज्य भारतीय शासन के अधीन आ गया था। कश्मीर में भारतीय सैनिक की तैनाती के पहले उन्होंने उस कागज पर दस्तख़त कर दिया था या उसके बाद किया था, यह अभी भी रहस्य है।

मूल प्रति कहां है, मालूम नहीं
उस विलय संधि की मूल प्रति कहां रखी हुई है, कई बार इस पर भी अनिश्चितता देखी गई है। मैं जब कश्मीर संघर्ष की शुरुआत पर 'अ मिशन इन कश्मीर' लिख रहा था, मैंने भारत के गृह मंत्रालय से मूल कागज देखने की अनुमति मांगी थी, पर इसे नामंजूर कर दिया गया। 

स्वतंत्र होना चाहते थे कश्मीर के महाराजा
कश्मीर के अंतिम महाराजा हरि सिंह शायद लाखों लोगों के अपने राज्य को स्वतंत्र रखने को तरज़ीह देते। पर ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी रजवाड़ों को यह साफ कर दिया था कि स्वतंत्र होने का विकल्प उनके पास नहीं था। वे भौगोलिक सच्चाई की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे। वे भारत या पाकिस्तान, चारों ओर से जिससे घिरे थे, उसमें ही शामिल हो सकते थे।

राजा हिंदू, प्रजा मुसलमान
जम्मू-कश्मीर उन चंद रियासतों में एक था, जो भारत और पाकिस्तान के बीच स्थित था और असली फ़ैसला वहीं लिया जाना था। ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ों ने यह मान लिया था कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान में मिलेगा। कुल मिला कर बंटवारे का तर्क यह था कि आसपास के मुस्लिम बहुल इलाक़े पाकिस्तान का हिस्सा बन जाएंगे और इस रियासत की लगभग तीन चौथाई आबादी मुसलमानों की थी। परिवहन, भाषा और व्यापार के रिश्ते भी पाकिस्तान की ओर ही इशारा करते थे लेकिन महाराजा हिंदू थे। बंटवारे और आज़ादी के साथ बढ़े हुए सांप्रदायिक तनाव की वजह से उनके लिए अपने राज्य को स्पष्ट रूप से मुस्लिम राज्य का हिस्सा बनाना मुश्किल था। उस समय की प्रमुख राजनीतिक हस्ती शेख़ अब्दुल्ला ने भी भारत में विलय का समर्थन किया था, हालांकि बाद में उनका झुकाव आज़ादी की ओर हो गया था।

फैसले में देरी की
किस नए राज्य में शामिल हुआ जाए, इस पर फ़ैसला करने में हरि सिंह काफ़ी धीमी गति से सोच रहे थे। 15 अगस्त 1947 को जब ब्रिटिश राज का अंत हुआ, ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों की काफ़ी कोशिशों के बावजूद, हरि सिंह किसी फ़ैसले पर नहीं पंहुच सके थे।

पाकिस्तान ने हमला कर दिया 
आने वाले हफ़्तों में इसके संकेत मिले थे कि महाराजा भारत में विलय की तैयारी कर रहे थे। पाकिस्तान से आने वाले क़बायली लड़ाकों के आक्रमण करने पर उन्होंने विलय का फ़ैसला कर लिया। पाकिस्तान की नई सरकार और सेना के एक हिस्से ने इन लड़ाकों का समर्थन किया था और उन्हें हथियार मुहैया कराए थे।

राजा ने ऐलान किया हम कश्मीर हार गए 
जब क़बायलियों की फ़ौज श्रीनगर की ओर बढ़ी, ग़ैर मुस्लिमों की हत्या और उनके साथ लूट पाट की ख़बरें आने लगीं, तब हरि सिंह 25 अक्टूबर को शहर छोड़ कर भाग गए। उनकी गाड़ियों का काफ़िला जम्मू के सुरक्षित महल पंहुच गया। उस समय के राजकुमार कर्ण सिंह याद करते हुए कहते हैं कि उनके पिता ने जम्मू पंहुच कर ऐलान कर दिया, "हम कश्मीर हार गए"।

फिर भारत में विलय कर दिया 
उस थकाऊ यात्रा के पहले या अधिक मुमिकन है कि उसके बाद, महाराजा ने उस काग़ज़ पर दस्तख़ कर दिया, जिसने उनकी रियासत को भारत का हिस्सा बना दिया। आधिकारिक रूप से यह कहा जाता है कि भारत के गृह मंत्रालय के उस समय के सचिव वीपी मेनन 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू गए और विलय के काग़ज़ात पर महाराजा से दस्तख़त करवा लिया।

दस्तख़त की तारीख पर रहस्य बरकरार
पर अब यह मोटे तौर पर ग़लत माना जाता है। मेनन उस दिन हवाई जहाज़ से जम्मू जाना चाहते थे, पर वे जा नहीं सके थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराजा ने दरअसल श्रीनगर छोड़ने से पहले ही कागज पर दस्तख़त कर दिया था। इस पर काफ़ी संदेह है। इस बात की काफ़ी संभावना है कि उन्होंने कागज पर दस्तख़त 27 अक्टूबर को किया होगा।

तारीख महत्वपूर्ण क्यों है
जो तारीख बताई जाती है, उन्होंने उसके एक दिन बाद दस्तख़त किया होगा, पर एक दिन पहले की तारीख़ डालने के लिए राजी हो गए होंगे। यह महत्वपूर्ण क्यों है? 27 अक्टूबर के तड़के पहली बार भारतीय सेना कश्मीर की ओर बढ़ी और उसे हवाई जहाज़ से श्रीनगर की हवाई पट्टी पर उतारा गया। इसकी पूरी संभावना है कि यह दुस्साहसिक सैनिक अभियान महाराजा के संधि पर दस्तख़त करने के कुछ घंटे पहले ही शुरू कर दिया गया था।

अंग्रेज चाहते थे जनता करे फैसला
भारत आधिकारिक रूप से कहता है कि यह अभियान दस्तख़त करने के बाद शुरू हुआ था। पर ऐसा नहीं है। महाराजा के विलय को स्वीकार करते हुए लॉर्ड माउंटबेटन ने इस पर ज़ोर दिया कि 'कश्मीर में ज्यों ही क़ानून व्यवस्था ठीक हो जाती है और उसकी सरज़मीन से हमलावरों को खदेड़ दिया जाता है, भारत में राज्य के विलय का मुद्दा जनता के हवाले से निपटाया जाएगा।'

भारतीय सेना का आॅपरेशन पूरा नहीं हो सका
इसके कुछ दिनों के बाद आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और आगे बढ़ गए। उन्होंने रेडियो पर कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र या अंतरराष्ट्रीय तत्वावधान में जनमत संग्रह कराने की बात कह दी। तमाम दिक्क़तों के बावजूद भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तानियों को श्रीनगर में घुसने से रोक दिया। उन्होंने उन लोगों को कश्मीर घाटी से बाहर भी धेकल दिया, पर वे उन्हें पूरी रिसायत से बाहर नहीं निकाल पाए।

पाकिस्तान ने हमला करके जनमत की संभावनाएं खत्म कर दीं
साल 1948 के बसंत में एक बार फिर लड़ाई छिड़ गई और पाकिस्तान ने खुले आम अपने सैनिक तैनात कर दिए। आज़ाद होने के कुछ महीनों के अंदर ही भारत और पाकिस्तान कश्मीर में एक दूसरे से लड़ रहे थे। युद्धविराम ने रियासत को प्रभावी रूप से दो हिस्सों में बांट दिया। जिस जनमत संग्रह का भरोसा दिया गया था, वह कभी नहीं कराया गया।

महाराजा के हस्ताक्षर महत्वपूर्ण, कश्मीर भारत का है 
कश्मीर में उसके मुद्दे पर चल रहे 70 साल के संघर्ष से यह साफ़ हो गया कि महाराजा ने विलय के काग़ज़ात पर दस्तख़त इस विवाद के निपटारे के लिए किया था कि कश्मीर पर शासन कौन करेगा, उस विवाद का समाधान उससे नहीं हुआ। दरअसल, वह तो कश्मीर संघर्ष की शुरुआत भर थी।

(एंड्र्यू ह्वाइटहेड 'अ मिशन इन कश्मीर' के लेखक हैं। वे बीबीसी के पूर्व भारत संवाददाता हैं। वे इस समय नॉटिंघम विश्वविद्यालय के मानद प्रोफ़ेसर हैं।)

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