
अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने वाला कृत्य जाली नोटों की तस्करी भी आंतरिक खतरे की भयावहता को बढ़ाती दिखती है। सरकार को ऐसे किसी टूट और विलगाव के जहर को पहले बेअसर करना होगा। जब तक देश सुरक्षित और संगठित नहीं रहेगा, तब तक बाहरी दुश्मनों से लड़ाई और उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई फिजूल है। नि:संदेह आंतरिक खतरे की भयावहता का जिक्र मेनन की कपोल कल्पित बातें नहीं हैं बल्कि उन्होंने रक्षा सलाहकार के पद पर रहते हुए इसे काफी पास से देखा-समझा है।
समय रहते इस खतरे से पार पाने की चुनौती इतनी आसान भी नहीं है। जब तक केंद्र और राज्य सरकारें समन्वय के साथ इन बाधाओं से निपटने का हुनर नहीं दिखाएंगी तब तक देश ऊपर से भले मजबूत दिखे, मगर अंदर से खोखला ही रहेगा। जिन खतरों का जिक्र मेनन कर रहे हैं, उनमें साम्प्रदायिक सद्भावना बिगाड़ने का भय ज्यादा गंभीर है। हर तरफ धर्म के नाम पर सामाजिक समरसता की जड़ में मट्ठा डालने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। जाति खेमेबंदी और इसकी आड़ में संघर्ष वाकई में किसी दुश्मन मुल्क के षड्य़ंत्र के आगे सिफर हैं। साथ ही बेकारी, भुखमरी, अमीरी-गरीबी की बढ़ती असमानता वगैरह चिरस्थायी समस्याओं का पिटारा भी डर पैदा करने के लिए काफी है। पड़ोसी देश श्रीलंका के साथ भी कुछ ऐसा ही है. कुछ साल पहले तक आतंकी संगठन लिट्टे से जूझने वाले इस छोटे और खूबसूरत देश में एक बार फिर धर्म के नाम पर अशांति पैदा होने का खतरा है। धर्मनिरपेक्षता और धर्म के जहर से हर कोई हलकान है। इससे पार पाए बिना ‘सीना चौड़ा’ करना गलतफहमी में रहने के समान है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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