
एक और तो वित्त मंत्रालय अर्थव्यवस्था के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार से परामर्श देता है| दूसरी और उसकी नीति बदल जाती है । उदाहरन के लिए वर्ष 2001-02 में यह दर 9.50 प्रतिशत थी और 2005-06 तक इसी स्तर पर बनी रही। 2005-06 में यह 8.50 प्रतिशत तय की गई जो 2011-12 तक जारी रही| वर्ष 2011-12 में इसे 8.24 प्रतिशत किया गया, फिर बढ़ाकर 8.75 प्रतिशत की गई| बीते वर्ष इसे 8.80 के स्तर पर रखा गया।
अब इसे 8.60 प्रतिशत के स्तर पर रखने का फैसला किया गया है. दरअसल, वित्त मंत्रालय चाहता है कि श्रम मंत्रालय ईपीएफ पर ब्याज दरों का अपने अधीन आने वाली लघु बचत योजनाओं के साथ सामंजस्य बिठा कर रखे| भले ही आर्थिक नजरिये से यह फैसला कितना ही उचित या अनुचित हो| लेकिन यकीन के साथ कहा जा सकता है कि कामकाजी तबकों में इसका कोई बेहतर संदेश नहीं जाने वाला,महंगाई से त्रस्त तबके के लिए वैसे भी बचत करने की प्रेरणा मुश्किल रहती है. ऐसे में उन्हें लगता है कि पीएफ के रूप में उनकी बचत ही हो रही है|
अगर इस पर मिलने वाला ब्याज कम कर दिया जाए तो उन्हें अपनी दीर्घकालिक आय में गंभीर कमी जैसी महसूस होने लगती है|एक कल्याणकारी राज में इस प्रकार की चिंता कामकाजी तबकों में व्याप जाना किसी भी लिहाज से उचित नहीं जान पड़ता|पीएफ का लाभकारी के साथ ही आकषर्क रिटर्न देने वाली गतिविधि बने रहना आवश्यक है, अन्यथा यह बोझिल गतिविधि की शक्ल अख्तियार कर लेगी|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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