
अदालत की देहरी पर जब आरक्षण की ये घोषणाये जाती है, सरकार के दावे और तर्क बेमानी साबित हो जाते हैं। इस मामले में भी कुछ ऐसा हुआ। सुनवाई के दौरान अदालत ने 1993 को इंदिरा साहनी केस में दिए गए आदेश का हवाला दिया, जिसके अनुसार आरक्षण सुविधा देने के लिए संबंधित वर्ग की हैसियत का सर्वे बेहद जरूरी है। चूंकि, अगले साल गुजरात में विधान सभा चुनाव होने हैं। पटेल आंदोलन के बाद दलितों की पिटाई प्रकरण ने गुजरात की भाजपा सरकार को बैकफुट पर ला दिया है। लिहाजा, सरकार शार्टकट तरीके से जनता का वोट पाने के लिए ये सब तरीके आजमा रही है। अब जबकि अदालत से अध्यादेश के असंवैधानिक करार देने के बाद विपक्ष ने भी अपनी तोपें भाजपा सरकार की ओर कर दी है। एक तरफ जहां भाजपा इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रही है, वहीं पटेल आंदोलन से उभरे नेता हार्दिक पटेल ने सारा ठीकरा आनंदी बेन सरकार के सिर फोड़ा है।
अगर गुजरात की सरकार ईमानदारी से जनता को आरक्षण का लाभ देना चाहती है, तो उसे सर्वदलीय बैठक करने के साथ ही व्यापक सव्रेक्षण कर दोबारा उस अध्यादेश को बाकायदा पारित कर लागू करना होगा। आमतौर पर राजनीतिक दल और सरकारें आरक्षण देने के त्वरित निर्णय लेने से वह जनता की तात्कालिक तौर पर भले वाहवाही लूट लेती हो; किंतु दीर्घकालीन अवधि में ऐसे फैसले नासूर भी बन जाते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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